अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 89/ मन्त्र 1
इ॒दं यत्प्रे॒ण्यः शिरो॑ द॒त्तं सोमे॑न॒ वृष्ण्य॑म्। ततः॒ परि॒ प्रजा॑तेन॒ हार्दिं॑ ते शोचयामसि ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । यत् ।प्रे॒ण्य: । शिर॑: । द॒त्तम् । सोम॑न । वृष्ण्य॑म् । तत॑: । परि॑ । प्रऽजा॑तेन । हार्दि॑म् । ते॒ । शो॒च॒या॒म॒सि॒ ॥८९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं यत्प्रेण्यः शिरो दत्तं सोमेन वृष्ण्यम्। ततः परि प्रजातेन हार्दिं ते शोचयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । यत् ।प्रेण्य: । शिर: । दत्तम् । सोमन । वृष्ण्यम् । तत: । परि । प्रऽजातेन । हार्दिम् । ते । शोचयामसि ॥८९.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शत्रु को जीतने का उपदेश।
पदार्थ
(प्रेण्यः=प्रेण्याः) तृप्त करनेवाली ओषधि का (यत्) जो (इदम्) यह (शिरः) मस्तकबल और (सोमेन) सब के उत्पन्न करनेवाले परमेश्वर करके (दत्तम्) दिया हुआ (वृष्ण्यम्) जो वीरत्व है। (ततः) उस से (परि) सब प्रकार (प्रजातेन) उत्पन्न हुए [साहस] से (ते) तेरी (हार्दिम्) हार्दिक शक्ति को (शोचयामसि) हम शोक में डालते हैं ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य सोमलता आदि उत्तम ओषधियों के सेवन से और परमेश्वर के दिये बल से शत्रुओं को पीड़ित करें ॥१॥
टिप्पणी
१−(इदम्) शरीरस्थम् (यत्) (प्रेण्यः) वीज्याज्वरिभ्यो निः। उ० ४।४८। इति प्रीङ् प्रीतौ, वा प्रीञ् तर्पणे कान्तौ च−नि, वा ङीप् छान्दसो ह्रस्वः। प्रेण्याः। तर्पयित्र्याः सोमलताद्योषध्याः (शिरः) शिरोबलम् (दत्तम्) (सोमेन) सर्वोत्पादकेन परमेश्वरेण (वृष्ण्यम्) अ० ४।४।४। वीरत्वेन (ततः) तस्माद् बलात् (परि) सर्वतः (प्रजातेन) उत्पन्नेन साहसेन (हार्दिम्) बाह्वादिभ्यश्च। पा० ४।१।९६। इति हृद्−इञ्। हार्दिकां शक्तिम् (ते) तव हे शत्रो (शोचयामसि) शोचयामः सन्तापयामः ॥
विषय
सोमेन दत्तम्
पदार्थ
१.हे पुरुष! (इदम्) = यह (यत्) = जो (प्रेण्यः) = प्रीणित करनेवाली पत्नी का (शिर:) = सिर (सोमेन) = सकल जगदुत्पादक प्रभु ने (दत्तम्) = तेरे हाथ में दिया है, यह (वृष्ण्यम्) = तुझमें शक्ति का सेचन करनेवाला हो। इस पत्नी के गौरव को बचाना तू अपना धर्म समझे और यह भाव तुझे शक्तिशाली बनाए। २. (ततः) = उस तेरे हाथ में दिये गये सिर से (परिप्रजातेन) = उत्पन्न हुए-हुए स्नेहविशेष से (ते) = तेरे (हार्दिम्) = हन्मध्यवर्ती अन्त:करण को (शोचयामसि) = दीत करते हैं। तुझे पत्नी के प्रति प्रेम हो, उसके यश को रक्षित करना तू अपना कर्त्तव्य समझे और यह कर्तव्यपालन की भावना तेरे अन्त:करण को उज्ज्वल करनेवाली हो-उत्साहयुक्त करनेवाली हो।
भावार्थ
एक पति यह समझे कि प्रभु ने इस पत्नी को मुझे प्रास कराया है, इसकी कीर्ति का रक्षण मेरा कर्तव्य है। यह कर्त्तव्य-भावना उसके हृदय को उत्साहित करे।
भाषार्थ
(इदम्) यह (प्रेण्यः) प्रणय१ वाली पत्नी का (शिरः) शिरस्थ-प्रणय, (यत्) जो कि (वृष्ण्यम्) सुखवर्षी है, जो कि (सोमेन) जगदुत्पादक परमेश्वर ने (दत्तम्) दिया है, (तत् परिप्रजातेन) उस से उत्पन्न हुए प्रणय के कारण (ते) तेरे (हार्दिम्) हृदयवर्ती चित्त को (शोचयामसि) हम शोकयुक्त करते हैं।
टिप्पणी
[मन्त्र में कारणवश कुपित-पत्नी के प्रति कथन हुआ है। उसे कहा है कि परमेश्वर द्वारा प्रदत्त प्रणय, जिस का स्थान सिर है, वह पति-पत्नी के प्रति सुखवर्षी रूप है; सिर से प्रकट हुए प्रणय द्वारा तेरे चित्त को हम गृहस्थवासी शोकयुक्त या सन्तप्त करते हैं, तुझे समझा कर तुझे प्रकोप करने के कारण प्रायश्चित्तरूप में दु:खित करते हैं, ताकि इस प्रकोप का तू परित्याग कर दे। शिरः= लक्षणया शिरःस्थ प्रणय। यथा 'मञ्चाः क्रोशन्ति= मञ्चस्थाः पुरुषाः क्रोशन्ति'। सोमेन= षू प्रसवे । हार्दिम= हृदयवर्ती चित्त। यथा 'हृदये चित् संवित्' (योग० ३।३४)। सायणाचार्य के अनुसार सम्बोधन 'हे जायापत्योरन्यतर' द्वारा मन्त्र १ में भी जाया और पति में से अन्यतर का है, मन्त्र २ की व्याख्यानुसार। परन्तु मन्त्र तीन की व्याख्या में सायणानुसार सम्बोधन जायापरक है, यथा- हे जाये']। [१. प्रेण्यः= प्रेमप्रापकस्य यत् इदं शिरः (सायण)। तथा प्रेणा= प्रेम्णा (उद्गीथ तथा वेङ्कटमाधव; ऋ० १०।७१।१)।]
विषय
पति का कर्तव्य—पत्नीसंरक्षण।
भावार्थ
(यत्) जो (इदम्) यह (प्रेण्याः) प्रियतमा पत्नी का (वृष्ण्यम्) बलप्रद (शिरः) शिर अर्थात् इज्ज़त कीर्त्ति (सोमेन) सर्व जगत् के प्रेरक परमात्मा ने हे पुरुष ! तेरे हाथ में (दत्तम्) दी है (ततः) उस स्त्री की कीर्त्ति से (प्र-जातेन) उत्पन्न हुए उत्कृष्ट तेरे यश या कर्त्तव्य से (ते) तेरे (हार्दिम्) हृदय के भावों को (परि शोचयामसि) हम उद्दीप्त करते हैं। मनुष्य स्त्रियों की कीर्त्ति की रक्षा करना अपना कर्त्तव्य समझे और उनकी बेइज्जती होती देखे तो अपने हृदय सें मन्यु धारण करे। इसी प्रकार स्त्रियां भी अपने पतियों के यश की रक्षा करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ता देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Spirit of Love,
Meaning
O Rudra, spirit of health and love of life, with this top energy and excitement given by the generous and exuberant soma, and by the vigour and enthusiasm created thereby, we kindle and brighten up your spirit in the heart for the love of lustrous living. (This is a Priti Samjanana Sukta, i.e., the hymn for the creation of love for life and living. This mantra, therefore, may be interpreted as the key to stir up the heart from a state of depression, and soma may be interpreted either as the soma herb and its juice or as the rejuvenating peace arising from meditation. Swami Dayanand interprets Rudra as ‘that which saves from illness’, which can be the physician, a herb, pranic energy raised, or the ultimate saviour God.)
Subject
As in the verses
Translation
This is the invigorating head of the winner of love, which Soma, the medicinal herb, has bestowed with the vigour born out of if, we incite desire in your heart.
Translation
O wife! I thoroughly startle the spirit of your heart with the vigor produced out of this head of the Preni (the herb called Preni) and the power given by the Soma plant.
Translation
O man, God hath placed in thy hands the mighty honor of this loving wife. We animate the feelings of thy heart, arising out of thy performing the duty of preserving her honor.
Footnote
Men should consider it their duty to protect the honor of women. They should never tolerate their disgrace, and be full of indignation at the man who shows disrespect to women. Women should also protect the honor of their men.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(इदम्) शरीरस्थम् (यत्) (प्रेण्यः) वीज्याज्वरिभ्यो निः। उ० ४।४८। इति प्रीङ् प्रीतौ, वा प्रीञ् तर्पणे कान्तौ च−नि, वा ङीप् छान्दसो ह्रस्वः। प्रेण्याः। तर्पयित्र्याः सोमलताद्योषध्याः (शिरः) शिरोबलम् (दत्तम्) (सोमेन) सर्वोत्पादकेन परमेश्वरेण (वृष्ण्यम्) अ० ४।४।४। वीरत्वेन (ततः) तस्माद् बलात् (परि) सर्वतः (प्रजातेन) उत्पन्नेन साहसेन (हार्दिम्) बाह्वादिभ्यश्च। पा० ४।१।९६। इति हृद्−इञ्। हार्दिकां शक्तिम् (ते) तव हे शत्रो (शोचयामसि) शोचयामः सन्तापयामः ॥
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