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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 116 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 116/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वाङ्गिराः देवता - चन्द्रमाः छन्दः - एकावसाना द्विपदार्च्यनुष्टुप् सूक्तम् - ज्वरनाशन सूक्त
    40

    यो अ॑न्ये॒द्युरु॑भय॒द्युर॒भ्येती॒मं म॒ण्डूक॑म॒भ्येत्वव्र॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अ॒न्ये॒द्यु॒: । उ॒भ॒य॒ऽद्यु: । अ॒भि॒ऽएति॑ । इ॒मम । म॒ण्डूक॑म् । अ॒भि । ए॒तु॒ । अ॒व्र॒त: ॥१२१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अन्येद्युरुभयद्युरभ्येतीमं मण्डूकमभ्येत्वव्रतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अन्येद्यु: । उभयऽद्यु: । अभिऽएति । इमम । मण्डूकम् । अभि । एतु । अव्रत: ॥१२१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 116; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (4)

    विषय

    रोगनिवारण का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो (अन्येद्युः) एकान्तरा और (उभयद्युः) दो अन्तरा [ज्वरसमान] (अभ्येति) चढ़ता है, (अव्रतः) नियमहीन वह [रोग] (इमम्) इस (मण्डूकम्) मेंढक [समान टर्रानेवाले आत्मश्लाघी पुरुष] को (अभि एतु) चढ़े [ऐसे ज्वरसमान शत्रु पर वज्र होवे-म० १] ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे ज्वर आदि रोग कुनियमियों को सताता है, वैसे धर्मात्माओं के दुःखदायी शत्रु लोग दण्डनीय हैं ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(यः) ज्वरः (अन्येद्युः) सद्यःपरुत्परार्यैषमः०। पा० ५।३।२२। अन्य-एद्युस् प्रत्ययः। अन्यस्मिन्नहनि (उभयद्युः) द्युश्चोभयाद्वक्तव्यः। वा० पा० ५।३।२२। उभय−द्युः प्रत्ययः। उभयोर्दिनयोः, अतीतयोरिति शेषः (अभ्येति) अभिगच्छति (इमम्) प्राणिनम् (मण्डूकम्) अ० ४।१५।१२। भेकतुल्यशब्दायमानमात्मश्लाघिनं पुरुषम् (अभ्येतु) अभिगच्छतु (अव्रतः) अ० ६।२०।१। भ्रष्टनियमः ॥

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    विषय

    रूर व शीतज्वर

    पदार्थ

    १. (च्यवनाय) = [च्यावयित्रे शारीरस्वेदपातयित्रे] अत्यधिक पसीना टपकानेवाले (नोदनाय) = इधर उधर विक्षिप्त करनेवाले, (धृष्णवे) = अभिभूत कर लेनेवाले, दबा-सा देनेवाले (रूराय) = उष्णज्वर के लिए (नमः) =  नमस्कार हो, यह ज्वर हमसे दूर ही रहे। इसी प्रकार (पूर्वकामकृत्वने) = चिरकाल तक पीडित करने के द्वारा पहली अभिलाषाओं को छिन्न कर देनेवाले ['इदं करोमि इदं करोमि' इति पूर्व काम्यमानं अभिलाषं शीतज्वर: निकृन्तति चिरकालं बाधाकारित्वात्] (शीताय) = शीतज्वर के लिए भी (नमः) = नमस्कार हो। हम 'रूर व शीत' दोनों ज्वरों को ही दूर से नमस्कार करते हैं। २. (यः) = जो ज्वर (अन्येद्यु:) = दूसरे दिन (इमम्) = इस पुरुष को अभ्येति प्राप्त होता है और जो (उभयद्यः) = [उभयोः दिवसयो:अतीतयोः] दो दिन बीत जाने पर [अभ्येति] आता है, अर्थात् चातुर्थिक ज्वर (अव्रतः) = अनियत कालवाला ज्वर (मण्डूकम् अभ्येतु) = मण्डूक को प्रास हो। [मण्डूकी-A wanton or unchaste woman] 'मण्डूक' अपवित्र आचरणवाले पुरुष का नाम है। इस अपवित्र पुरुष को ही यह ज्वर प्राप्त हो।

    भावार्थ

    हम पवित्र जीवनवाले बनकर,उष्णञ्चर, शीतज्वर व चातुर्थिकादि ज्वरों से पीड़ित होने से बचें। मण्डूकवृत्तिवाले पुरुष को ही ये ज्वर प्राप्त हों।

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    भाषार्थ

    (यः) जो (अग्रतः) अनियत काल का ज्वर (अन्येद्युः) एक दिन के व्यवधान में (उभयद्युः) तथा दो दिनों के व्यवधान में (अभ्येति) आता है, वह (इमम्, मण्डूकम्) इस मण्डूक को (अभ्येतु आए।

    टिप्पणी

    [मण्डूकम्= उपमावाचक पद लुप्त है। जैसे मण्डूक जल प्रदेशवासी हैं, उसी प्रकार जो मनुष्य जनप्राय प्रदेश में निवास करता है उसे, दोनों प्रकार के ज्वर आते हैं। अथवा "मण्डूक" पद यौगिक है। यथा "मण्डूकाः, मण्ड एषामोक इति वा” (निरुक्त ९।१।५), मण्ड अर्थात् उदक में अनूप प्रदेश में जिन का "ओकः" घर है वे मण्डूक हैं। "मण्ड" का अर्थ है उदक; यथा दधिमण्डः= दधिजलम् (वैद्यकशब्दसिन्धुः)। जलप्राय प्रदेश में निवास करने से, शरीर में जल की आनुपातिक मात्रा बढ़ जाने पर, मलेरिया का आक्रमण होता रहता है]।

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    विषय

    ज्वर निदान।

    भावार्थ

    और (यः) जो (अन्येद्युः) एक दिन छोड़कर अगले दिन आवे, (उभये) दो दिन छोड़कर (अभ्येति) आवे या दो दिन आकर एक दिन छोड़े और (अव्रतः) जो बिना किसी नियम के आवे वह सब ज्वर (इमं मण्डूकम्) इस मेंढक पर (अभि-एति) आता है और निर्बल हो जाता है। दलदल की जगहों में उत्पन्न ज्वर आदि रोगों को सहन करने की क्षमता दल दलकी ओषधियों और जीवों में है। इसलिये उनके शरीर का भीतरी विष अवश्य ज्वर के विष का शमनकारी होगा इस सिद्धान्त से ज्वर के लिये मेंडक का प्रयोग बतलाया गया है। ऐसा ही प्रयोग सर्प काटे का भी पूर्व लिख आये हैं। ज्वर प्रकरण देखो (का० १ सू० २६) मण्डूक के अर्थ और भी हैं। जैसे कि श्योनाक वृक्ष, मण्डूक पर्णी ओषधि अर्थात् मंजीठ, ब्राह्मी इत्यादि।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वाङ्गिरा ऋषिः। चन्द्रमाः देवता। १ परा उष्णिक्। २ एकावसानाद्विपदा आर्ची अनुष्टुप्। द्वयृचं सक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Fever

    Meaning

    ‘Homage’ of proper herbal treatment for fever that comes after a day’s interval, for fever that comes for two days, for fever that comes irregularly without regular interval, and for that which comes with fluctuation of time and temperature.

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    Translation

    The fever, which comes after one day’s interval, or which comes after two days interval, or which comes without any rule, may that go over to this frog (mandukam).

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.121.2AS PER THE BOOK

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    Translation

    Let fever which is intermittent, which is continuous and which has no fixed time, go to this cloud.

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    Translation

    May the lawless fever, that comes on every third or fourth day, passover and possess the man who sings his praise like a frog.

    Footnote

    A self-praiser is censured and condemned in the verse. Just as a frog cries and utters his praise, so a man who sings his praise deserves to be attacked by fever. Nine kinds of fever are mentioned in this hymn.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(यः) ज्वरः (अन्येद्युः) सद्यःपरुत्परार्यैषमः०। पा० ५।३।२२। अन्य-एद्युस् प्रत्ययः। अन्यस्मिन्नहनि (उभयद्युः) द्युश्चोभयाद्वक्तव्यः। वा० पा० ५।३।२२। उभय−द्युः प्रत्ययः। उभयोर्दिनयोः, अतीतयोरिति शेषः (अभ्येति) अभिगच्छति (इमम्) प्राणिनम् (मण्डूकम्) अ० ४।१५।१२। भेकतुल्यशब्दायमानमात्मश्लाघिनं पुरुषम् (अभ्येतु) अभिगच्छतु (अव्रतः) अ० ६।२०।१। भ्रष्टनियमः ॥

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