अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 38/ मन्त्र 2
ऋषिः - अथर्वा
देवता - आसुरी वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - केवलपति सूक्त
86
येना॑ निच॒क्र आ॑सु॒रीन्द्रं॑ दे॒वेभ्य॒स्परि॑। तेना॒ नि कु॑र्वे॒ त्वाम॒हं यथा॒ तेऽसा॑नि॒ सुप्रि॑या ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । नि॒ऽच॒क्रे । आ॒सु॒री । इन्द्र॑म् । दे॒वेभ्य॑: । परि॑ । तेन॑ । नि । कु॒र्वे॒ । त्वाम् । अ॒हम् । यथा॑ । ते॒ । असा॑नि । सुऽप्रि॑या ॥३९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
येना निचक्र आसुरीन्द्रं देवेभ्यस्परि। तेना नि कुर्वे त्वामहं यथा तेऽसानि सुप्रिया ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । निऽचक्रे । आसुरी । इन्द्रम् । देवेभ्य: । परि । तेन । नि । कुर्वे । त्वाम् । अहम् । यथा । ते । असानि । सुऽप्रिया ॥३९.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विवाह में प्रतिज्ञा का उपदेश।
पदार्थ
(येन) जिस [उपाय] से (आसुरी) बुद्धिमानों वा बलवानों के हित करनेवाली बुद्धि ने (इन्द्रम्) बड़े ऐश्वर्यवाले मनुष्य को (देवेभ्यः) उत्तम गुणों के लिये (परि) सब ओर से (निचक्रे) नियत किया था। (तेन) उसी [उपाय] से (अहम्) मैं (त्वम्) तुझको (नि कुर्वे) नियत करती हूँ, (यथा) जिस से मैं (ते) तेरी (सुप्रिया) बड़ी प्रीति करनेवाली (असानि) रहूँ ॥२॥
भावार्थ
जिस प्रकार मनुष्य पूर्वकाल में बुद्धि और बल द्वारा उत्तम गुण प्राप्त करते रहे हैं, उसी प्रकार दम्पती प्रयत्न करके परस्पर प्रीति के साथ उत्तम गुण प्राप्त करें ॥२॥
टिप्पणी
२−(येन) उपायेन (निचक्रे) नियतं कृतवती (आसुरी) अ० १।२४।१। असुः प्रज्ञा प्राणो वा-रो मत्वर्थीयः-असुरत्वं प्रज्ञावत्त्वं प्राणवत्त्वं वा-निरु० १०।३४। मायायामण्। पा० ४।४।१२४। असुर-अण्। प्रज्ञावतां बलवतां वा हिता माया प्रज्ञा-निघ० ३।९। (इन्द्रम्) परमैश्वर्ययुक्तं नरम् (देवेभ्यः) उत्तमगुणानां प्राप्तये (परि) सर्वतः (तेन) उपायेन (नि) नियतम् (कुर्वे) करोमि (त्वाम्) वरम् (अहम्) वधूः (यथा) (ते) तव (असानि) भवानि (सुप्रिया) सुप्रीतिकरा ॥
विषय
आसुरी
पदार्थ
१. पत्नी कहती है कि (आसुरी) = प्राणशक्ति ने (येन) = जिस उपाय से (इन्द्रम्) = एक जितेन्द्रिय पुरुष को (देवेभ्यः परि) = दिव्य गणों के लिए सब ओर से (निचक्रे) = निश्चय से समर्थ किया, (तेन) = उसी उपाय से (त्वाम्) = तुझे (अहं निकुर्वे) = मैं अपने लिए निश्चय से प्राप्त करती हूँ, (यथा) = जिससे मैं (ते सुप्रिया असानि) = तेरी सुप्रिया हो।
भावार्थ
प्राणसाधना द्वारा निर्दोष जीवनवाला बनकर 'इन्द्र' जितेन्द्रिय पुरुष दिव्य गुणों को धारण करता है। इसी प्रकार प्राणसाधना से स्वस्थ व निर्मल मनवाली पत्नी पति के लिए प्रिय बनती है।
भाषार्थ
(आसुरी) प्रज्ञावान् पति की प्रज्ञावती पत्नी (येन) जिस भेषज द्वारा (देवेभ्यः परि) [पति की] इन्द्रियों को वर्जित करके, (इन्द्रम्) पति की आत्मा को (निचक्रे) वश में करती रही है, (तेन) उस भेषज द्वारा (अहम) मैं पत्नी (त्वाम्, निकुर्वे) तुझे वश में करती हूं, (यथा) ताकि (ते) तेरी (सुप्रिया) अत्यन्त प्रिया (असानि) मैं हो जाऊं।
टिप्पणी
[असुः प्रज्ञानाम (निघं० ३।९)। असुरः प्रज्ञावान्, बुद्धिमान्। आसुरी= बुद्धिमान् की बुद्धिमती पत्नी। तथा असुरत्वम्= प्रज्ञावत्त्वम् (निरुक्त १०।३।३४) पद त्वष्टा (२१)। देवेभ्यः= देवाः इन्द्रियाणि (यजु० ४०।४) यथा "नैनद् देवाऽआप्नुवन् पूर्वमर्षत्"। परि= अपपरी वजने (अष्टा० १।४।८८) इति परिः कर्मप्रवचनीयः, पञ्चम्यपाङ्परिभिः (अष्टा० २।३।१०) इति पञ्चमी; देवेभ्यः परि= देवान् वर्जयित्वा (सायण)। अभिप्राय यह कि जहां पति और पत्नी दोनों बुद्धिमान हों वहां परस्पर में अत्यन्त प्रेम बना रहता है। वहां ऐन्द्रियिक शृङ्गारविषय की परवाह न होकर आत्मिक सम्बन्ध की अधिक परवाह होती है। इन्द्र = जीवात्मा। यथा "इन्द्रियमिन्द्र लिङ्गम्" (अष्टा० ५।२।९३)। निकुर्वे निकारः Subjugation (आप्टे) =स्वाधीनं कुर्वे, वशीकरोमि]।
विषय
स्वयंवर-विधान।
भावार्थ
(आसुरी) आसुरी अर्थात् बुद्धिमानों द्वारा उपदिष्ट विवेक बुद्धि (येन) जिस प्रकार (देवेभ्यः) इन्द्रियों के (परि) उपर (इन्द्रं) इन्द्र, आत्मा को (नि चक्रे) बलशाली करती है। (तेन) उसी प्रकार (अहं) मैं स्वयंवरा कन्या स्वयं (त्वाम्) तुझ को (नि कुर्वे) सर्वथा अपने पर अधिकारी बनाती हूँ। (यथा) जिससे (ते) तेरी मैं (सुप्रिया) बहुत प्यारी (असानि) हो जाऊं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। १, २, ४, ५ अनुष्टुप्। ३ चतुष्पादुष्णिक्। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Marriage Vow
Meaning
It is inspiring for the mind and heart, Asuri, the same which raises Indra, the soul, to a superior position over the other noble people. By that I bind you to me so that I would be the only and exclusive love of yours in life.
Translation
Wherewith the power of life-enjoyers (asuri) draws the resplendent self close to her snatching him from the enlightened ones, with the same (herb), I draw you close to me, so that I may be very dear (supriya) to you.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.39.2AS PER THE BOOK
Translation
This herb wherewith Asuri, the heavy carnal desire draws the master of limbs, the soul downward from the divine virtues and actions and with this same herb I draw you, O husband! so that I may remain ever dear to you.
Translation
Just as intellectual perception establishes the authority of the soul over the organs, so do I accept thee as my lord, that I may be most dear to thee.
Footnote
Griffith interprets Asuri as a female friend named Vilistenga. This interpretation is unacceptable as there is no history in the vedas. The word means intellectual perception.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(येन) उपायेन (निचक्रे) नियतं कृतवती (आसुरी) अ० १।२४।१। असुः प्रज्ञा प्राणो वा-रो मत्वर्थीयः-असुरत्वं प्रज्ञावत्त्वं प्राणवत्त्वं वा-निरु० १०।३४। मायायामण्। पा० ४।४।१२४। असुर-अण्। प्रज्ञावतां बलवतां वा हिता माया प्रज्ञा-निघ० ३।९। (इन्द्रम्) परमैश्वर्ययुक्तं नरम् (देवेभ्यः) उत्तमगुणानां प्राप्तये (परि) सर्वतः (तेन) उपायेन (नि) नियतम् (कुर्वे) करोमि (त्वाम्) वरम् (अहम्) वधूः (यथा) (ते) तव (असानि) भवानि (सुप्रिया) सुप्रीतिकरा ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal