अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 47/ मन्त्र 2
कु॒हूर्दे॒वाना॑म॒मृत॑स्य॒ पत्नी॒ हव्या॑ नो अस्य ह॒विषो॑ जुषेत। शृ॑णोतु य॒ज्ञमु॑श॒ती नो॑ अ॒द्य रा॒यस्पोषं॑ चिकि॒तुषी॑ दधातु ॥
स्वर सहित पद पाठकु॒हू: । दे॒वाना॑म् । अ॒मृत॑स्य । पत्नी॑ । हव्या॑ । न॒: । अ॒स्य॒ । ह॒विष॑: । जु॒षे॒त॒ । शृ॒णोतु॑ । य॒ज्ञम् । उ॒श॒ती । न॒: । अ॒द्य । रा॒य: । पोष॑म् । चि॒कि॒तुषी॑ । द॒धा॒तु॒ ॥४९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
कुहूर्देवानाममृतस्य पत्नी हव्या नो अस्य हविषो जुषेत। शृणोतु यज्ञमुशती नो अद्य रायस्पोषं चिकितुषी दधातु ॥
स्वर रहित पद पाठकुहू: । देवानाम् । अमृतस्य । पत्नी । हव्या । न: । अस्य । हविष: । जुषेत । शृणोतु । यज्ञम् । उशती । न: । अद्य । राय: । पोषम् । चिकितुषी । दधातु ॥४९.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
स्त्रियों के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(देवानाम्) विद्वानों के बीच (अमृतस्य) अमर [पुरुषार्थी] पुरुष की (पत्नी) पत्नी (हव्या) बुलाने योग्य वा स्वीकार करने योग्य, (कुहूः) कुहू अर्थात् विचित्र स्वभाववाली स्त्री (नः) हमारे (अस्य) इस (हविषः) ग्रहण योग्य कर्म का (जुषेत) सेवन करे। (यज्ञम्) सत्सङ्ग की (उशती) इच्छा करती हुई (चिकितुषी) विज्ञानवती वह (अद्य) आज (नः) हमें (शृणोतु) सुने और (रायः) धन की (पोषम्) वृद्धि को (दधातु) पुष्ट करे ॥२॥
भावार्थ
जिस घर में यशस्वी पुरुष की पत्नी सब घरवालों की सुधि रखनेवाली और परिमित व्ययवाली होती है, वहाँ वह धन बढ़ाकर सबको आनन्द देती है ॥२॥
टिप्पणी
२−(कुहूः) म० १। विचित्रस्वभावा (देवानाम्) विदुषां मध्ये (अमृतस्य) अमरस्य। पुरुषार्थिनः पुरुषस्य (पत्नी) भार्या (हव्या) आह्वातव्या। स्वीकरणीया वा (नः) अस्माकम् (अस्य) उपस्थितस्य (हविषः) ग्राह्यकर्मणः (जुषेत) सेवनं कुर्यात् (शृणोतु) आकर्णयतु (यज्ञम्) सत्सङ्गम् (उशती) वश कान्तौ-शतृ। कामयमाना (नः) अस्माकं वचनम् (अद्य) (रायः) धनस्य (पोषम्) वृद्धिम् (चिकितुषी) अ० ४।३०।२। विज्ञानवती (दधातु) पोषयतु ॥
विषय
देवानाम् अमृतस्य पत्नी
पदार्थ
१. (कुहू:) = अपनी कार्यकुशलता से सबको विस्मित करनेवाली, (देवानाम्) = दिव्य गुणों का तथा (अमृतस्य) = नीरोगता का (पत्नी) = रक्षण करनेवाली यह (हव्या) = पुकारने योग्य व प्रभु का आह्वान करने में उत्तम पत्नी (न:) = हमारी (अस्य हविष:) = इस हवि का जुषेत-प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाली हो। यह यज्ञशील हो। २. (यज्ञं उशती) = यज्ञों की कामना करती हुई, यह (नः शृणोतु) = हमारी पुकार को सुने और (चिकितुषी) = समझदार होती हुई (अद्य) = आज (रायस्पोषं दधातु) = हमारे लिए धनों का पोषण करे।
भावार्थ
उत्तम गृहपत्नी वही है जो 'कार्यकुशलता, दिव्यगुणों व नीरोगता को धारण करनेवाली तथा प्रभस्तवन की वृत्तिवाली है। यह यज्ञों का सेवन करती हुई प्रभु की पुकार को सदा स्मरण करे। यह हमारे लिए धनों का पोषण करे।
भाषार्थ
(देवानाम्) देवो में से (अमृतस्य) अमृत व्यक्ति की (पत्नी कुहूः) पत्नी कुहू है, (हव्या) सत्कारपूर्वक आह्वानीया है, (अद्य) इस समय (नः अस्य हविषः) हमारे इस हविष्यान्न का (जुषेत) सेवन करे, भोजन करे (शृणोतु) हमारी प्रार्थना को सुने (यज्ञमुशती) गृहस्थयज्ञ की कामना वाली, (चिकितुषी) तथा सम्यक्-ज्ञानवाली विदुषी, (नः) हमें (रायस्पोषम्) निज ज्ञानरूपी सम्पत्ति (दधातु) प्रदान करे।
टिप्पणी
[कुहू के दो स्वरूप१ है, एक तो मन्त्र (१) में वर्णित गृहस्थ के कार्यों की विज्ञता, भोज्यान्न की व्यवस्था का करना, तथा सन्तानोत्पादन; और (मन्त्र २) में वर्णित जीवन्मुक्त की पत्नी का होना, अध्यात्मतत्त्वों का सम्यक-ज्ञानवाली होना, और इस ज्ञान सम्पति का दान करना तथा सन्तानोत्पत्ति से विरत रहना। दोनों प्रकार की "कुहू" पत्नियां पृथक्-पृथक पतियों के साथ विवाहयोग्या हैं]। [१. "कुहू" स्त्रियां द्विविधा है, गृहस्थ की प्रवृत्ति वाली, और अध्यात्मप्रवृत्ति वाली। विवाहित दोनों हैं। परन्तु प्रवृत्तिभेद है। जैसे कि याज्ञवल्क्य की स्त्रियां थीं, एक कात्यायनी और दूसरी गार्गी। दोनों में प्रवृत्तिभेद था (वृहदा० उपनिषद अ० ४। ब्रा० ५। कण्डिका १-१५)।]
विषय
कुहू नामक अन्तरंगसभा का वर्णन।
भावार्थ
(देवानां) देवगण, विद्वानों के बीच में (अमृतस्यपत्नी) कभी न विनाश होने वाली, सत्य सिद्धान्त या नियम का पालन करने वाली (अस्य हविषः) इस हवि = मन्त्र या विचार को (जुषेत) सेवन करे, विचार करे। और (यज्ञं) राष्ट्र के हित को या परस्पर के संग साहाय्य को (उशती) चाहती हुई (शृणोतु) सब सभासदों के मत को भली प्रकार सुने। और (अद्य) अब (चिकितुषी) सब बात यथार्थ रूप से जानती हुई (नः) हमारे राष्ट्र के (रायस्पोषं) धन की सम्पत्ति वृद्धि को (दधातु) करे। कुहू के वर्णन के साथ साथ गृहपत्नी के कर्त्तव्यों का भी वर्णन हो गया है। जैसे (१) मैं सुहवा पति (कुहू) जितेन्द्रिय विदुषी पत्नी को यज्ञ में बुलाता हूं। वह हमें सब प्रकार से हृष्ट पुष्ट पुत्र प्रदान करे। (२) वह अपने अमृत दीर्घायु पति की पत्नी पूजा के योग्य है। वह अपने पति की कामना करती हुई भी हमारे बीच में विदुषी होकर बड़ों की आज्ञा सुने और प्रजाओं को पुष्ट करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। कुहुर्देवी देवता। जगती। २ त्रिष्टुप्। द्वयृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Life Partner
Meaning
Favourite of the people of divine knowledge and character, sustainer of life’s immortal values, intimate friend and companion, may kuhu, the sweet and lovely lady, accept this offer of homage. May she listen now and join our home yajna of conjugality with love in full awareness and bring us prosperity of health and happiness with wealth and advancement at the present time.
Translation
May the moonless night (kuhu), the consort of the immortal among the enlightened ones, worthy of invocation, accept and enjoy our this oblation. Full of desire, may she hear today of our this sacrifice. Knowing (about it), may she grant us riches and nourishment.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.49.2AS PER THE BOOK
Translation
This last part of dark-night is the preserver of the immortality of the rays of the sun, let this, praised, accept the oblation offered by us in the yajna, and let it be now the source of increasing our wealth like the house-hold lady who desiring to perform the yajnas and Knowing everything hears her family’s requirements and increases the return of the wealth.
Translation
May the wife of an energetic person, worthy of being invoked, from amongst the learned, enjoy this sacrifice of ours. Let her, desirous of religious assembly, hear us today. May she, intelligent, lend increase to our wealth.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(कुहूः) म० १। विचित्रस्वभावा (देवानाम्) विदुषां मध्ये (अमृतस्य) अमरस्य। पुरुषार्थिनः पुरुषस्य (पत्नी) भार्या (हव्या) आह्वातव्या। स्वीकरणीया वा (नः) अस्माकम् (अस्य) उपस्थितस्य (हविषः) ग्राह्यकर्मणः (जुषेत) सेवनं कुर्यात् (शृणोतु) आकर्णयतु (यज्ञम्) सत्सङ्गम् (उशती) वश कान्तौ-शतृ। कामयमाना (नः) अस्माकं वचनम् (अद्य) (रायः) धनस्य (पोषम्) वृद्धिम् (चिकितुषी) अ० ४।३०।२। विज्ञानवती (दधातु) पोषयतु ॥
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