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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 73/ मन्त्र 11
    ऋषिः - अथर्वा देवता - घर्मः, अश्विनौ छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - धर्म सूक्त
    15

    सू॑यव॒साद्भग॑वती॒ हि भू॒या अधा॑ व॒यं भग॑वन्तः स्याम। अ॒द्धि तृण॑मघ्न्ये विश्व॒दानीं॑ पिब शु॒द्धमु॑द॒कमा॒चर॑न्ती ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒य॒व॒स॒ऽअत् । भग॑ऽवती । हि । भू॒या: । अध॑ । व॒यम् । भग॑ऽवन्त: । स्या॒म॒ । अ॒ध्दि । तृण॑म् । अ॒घ्न्ये॒ । वि॒श्व॒ऽदानी॑म् । पिब॑ । शु॒ध्दम् । उ॒द॒कम् । आ॒ऽचर॑न्ती ॥७७.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सूयवसाद्भगवती हि भूया अधा वयं भगवन्तः स्याम। अद्धि तृणमघ्न्ये विश्वदानीं पिब शुद्धमुदकमाचरन्ती ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुयवसऽअत् । भगऽवती । हि । भूया: । अध । वयम् । भगऽवन्त: । स्याम । अध्दि । तृणम् । अघ्न्ये । विश्वऽदानीम् । पिब । शुध्दम् । उदकम् । आऽचरन्ती ॥७७.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 73; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे प्रजा, सब स्त्री-पुरुषो !] (सूयवसात्) सुन्दर अन्न आदि भोगनेवाली और (भगवती) बहुत ऐश्वर्यवाली (हि) ही (भूयाः) हो, (अध) फिर (वयम्) हमलोग (भगवन्तः) बड़े ऐश्वर्यवाले (स्याम) होवें। (अघ्न्ये) हे हिंसा न करनेवाली प्रजा ! (विश्वदानीम्) समस्त दानों की क्रिया का (आचरन्ती) आचरण करती हुई तू [हिंसा न करनेवाली गौ के समान] (तृणम्) घास [अल्प मूल्य पदार्थ] को (अद्धि) खा और (शुद्धम्) शुद्ध (उदकम्) जल को (पिब) पी ॥११॥

    भावार्थ

    जैसे गौ अल्प मूल्य घास खाकर और शुद्ध जल पीकर दूध घी आदि देकर उपकार करती है, वैसे ही मनुष्य थोड़े व्यय से शुद्ध आहार-विहार करके संसार का सदा उपकार करें ॥११॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१।१६४।४० ॥ इति षष्ठोऽनुवाकः ॥

    टिप्पणी

    ११−(सूयवसात्) अदोऽनन्ने। पा० ३।२।६८। सुयवस+अद भक्षणे-विट्। शोभनानि यवसानि अन्नादीनि अदन्ती प्रजा (भगवती) बह्वैश्वर्ययुक्ता (हि) अवधारणे (भूयाः) (अध) अथ। अनन्तरम् (भगवन्तः) बह्वैश्वर्ययुक्ताः (स्याम) भवेम (अद्धि) अशान (तृणम्) घासम् (अघ्न्ये) अहिंसिके (विश्वदानीम्) दानीं च। पा० ५।३।१८। विश्व-दानीं प्रत्ययः सप्तम्यर्थे। विश्वदानीम्=सर्वदा-निरु० ११।४४। विश्वानि समग्राणि दानानि यस्यास्तां क्रियाम्, यथा दयानन्दभाष्ये ऋक्० १।१६४।४०। (पिब) (शुद्धम्) पवित्रम् (उदकम्) जलम् (आचरन्ती) अनुतिष्ठन्ती ॥

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    विषय

    भगवती [गो]

    पदार्थ

    १.हे (अघ्न्ये) = अहन्तव्ये गौ! तू (सूयवसात्) = उत्तम चरी को खाती हुई (हि) = निश्चय से (भगवती भूया:) = उत्तम धनवाली व सौभाग्य को प्राप्त करानेवाली हो। (अध) = अब (वयम्) = हम (भगवन्त: स्याम) = उत्तम ऐश्वर्यवाले हों। इस गौ की कृपा से हम वसुमान् बनें, यह गौ 'वसूनां वसुपत्नी' ही तो है। २. हे अन्ये! तू (विश्वदानीम्) = सदा (तृणं अद्धि) = घास खानेवाली हो, जिससे तेरे शरीर में कभी कोई विकार न आये। तू गोचर में (आचरन्ती) = चारों ओर विचरण करती हुई (शुद्ध उदकं पिब) = शुद्ध जल पी।

    भावार्थ

    उत्तम यवस [चरी] को खाती हुई, गोचर प्रदेशों में घास चरती हुई, विशुद्ध जल पीती हुई यह गौ हमारे लिए उत्तम दूध दे। यह हमें सौभाग्य-सम्पन्न करे।

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    पदार्थ

    शब्दार्थ =  ( सूयवसात् ) = सुन्दर अन्न भोगनेवाली प्रजा  ( भगवती ) = बहुत ऐश्वर्यवाली  ( हि )  = ही  ( भूया: ) = होओ।  ( अधा ) = फिर  ( वयम् ) = हम लोग  ( भगवन्तः स्याम ) = ऐश्वर्यवाले होवें  ( अघ्न्ये ) = हे हिंसा न करनेवाली प्रजा !  ( विश्वदानीं ) = समस्त दानों की क्रिया का  ( आचरन्ती ) = आचरण करती हुई  तू हिंसा न करनेवाली गौ के समान  ( तृणम् ) = घास व अल्पमूल्यवाले पदार्थों को  ( अद्धि ) = खाओ  ( शुद्धम् उदकं पिब ) = शुद्ध जलपान करो । 

    भावार्थ

    भावार्थ = परमात्मा वेद द्वारा हमें उपदेश देते हैं— हे मेरी प्रजाओ ! जैसे गौ साधारण घास खाकर और शुद्ध जल पी कर दुग्ध घृतादिकों को देकर उपकार करती है। ऐसे तुम भी थोड़े खर्च से आहार-व्यवहार करते हुए संसार का उपकार करो । आपका सादा जीवन हो ।

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    भाषार्थ

    (सूयवसाद्) उत्तम घास खाने वाली, (भगवती) दूधरूपी ऐश्वर्य वाली (हि) निश्चय से (भूयाः) तू हो, (अधा) तदनन्तर (वयम्) हम (भगवन्तः) दूधरूपी ऐश्वर्य वाले (स्याम) हो। (अघ्न्ये) हे अवध्ये ! (विश्वदानीम्) सदा (तृणम्) घासादि तृणों को (अद्धि) तू खा, और (आचरन्ती) सर्वत्र विचरती हुई (शुद्धम्) शुद्ध (उदकम्) जल को (पिब) पी।

    टिप्पणी

    [सूयवसाद् = सु + यवस१ (घास) + अद् (भक्षणे)। विश्वदानीम् = कालार्थे "दानीं च" (अष्टा० ५।३।१८), यद्यपि “दानीम्" प्रत्यय "तत् और इदम्" शब्दों से होता है, तो भी “विश्व" को "दानीम्" प्रत्यय छान्दस है (सायण)]। [१. सम्भवतः “यवस" द्वारा यव (जौं) के तृण अभिप्रेत हो।]

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    विषय

    ब्रह्मानन्द रस।

    भावार्थ

    पुनः उसी गौ का वर्णन करते हैं। हे (अघ्न्ये) न मारने योग्य अघ्न्या गौ ! तू (सु-यवस-अत्) उत्तम जौ की भुस खाकर (ही) निश्चय से (भग-वती) दूध आदि सौभाग्यशाली पदार्थों से युक्त (भूयाः) हो। (अधा) और (वयं) हम भी (भगवन्तः) सुख सम्पत्तिमान् (स्याम) हों। हे (अघ्न्ये) गौ ! तू (विश्वदानीम्) सदा ही (तृणम्) घास (अद्धि) खा और (आ चरन्ती) सब तरफ विचरती हुई (शुद्धम्) स्वच्छ (उदकम्) जल का (पिब) पान कर। अध्यात्म पक्ष में—विड् वै यवः। राष्ट्रं यवः। तै० ३। ९०। ७। २। यवस अर्थात् कभी जुदा न होनेवाले प्राण सामर्थ्यों का ही भोग करती हुई आन्तरिक शक्तियों के ही चमत्कारिक विभूतियों का भोग करती हुई चितिशक्ति (भगवती) ऐश्वर्यवती हो। और इस प्रकार हम साधक भी ऐश्वर्यवान् हों। वह ज्योतिष्मती मुक्तिदायिनी चितिशक्ति या ज्ञानमयी, ब्रह्मगवी, या साधक की ज्ञानमुद्रा (अद्धि तृणम्) उस समय तृण=विनाश योग्य इस शरीर को खा जाती है, अर्थात् देह को अपने में लीन कर लेती है, और साधक विदेहप्रकृतिलय होने की चेष्टा करता है। और चिति-शक्ति स्वतः शुद्ध उदक=स्वच्छ ज्ञान ‘ऋत’ का पालन करती हुई विचरती हैं। वही ऋतम्भरा प्रज्ञा का उदय है। (तत्र निरतिशयं सार्वज्ञबीजम्। यो० सू०।) उस समय चितिशक्ति की सार्वज्ञशक्ति का उदय होता है। राष्ट्र पक्ष में—यवस=राष्ट्रकी आय को खाकर राजा की ईश्वरी शासन शक्ति सर्वत्र अघ्न्या=अविनाशी होकर रहे, राष्ट्रवासी हम भी प्रभु के समान ऐश्वर्यवान् हों। वह तृण=शत्रु को खाय और स्वच्छ उदक ‘राष्ट्र का’ पालन करे।

    टिप्पणी

    अस्या ऋग्वेदे दीर्घतमा ऋषिः॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। अश्विनौ देवते। धर्मसूक्तम्। १, ४, ६ जगत्यः। २ पथ्या बृहती। शेषा अनुष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yajna Karma

    Meaning

    O Spirit of the nation, children of the earth, inviolate and inviolable as the holy cow, be great and glorious by virtue of pure barley food, and then all of us would be great and glorious. Eat pure herbal food, drink pure water, and live a simple life of purity, kindness and universal giving.

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    Translation

    Come, O cow; may you be rich (in milk), having been well fed on abundant fodder from the grassy meadows. May you eat grass at all seasons,and (roaming at will) drink pure and healthy water: (Also Rg. I.164.40) (Aghnyé - inviolable one, a synonym for cow)

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.77.11AS PER THE BOOK

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    Translation

    May this cow (Aghnya) eating the nice fodder of barley be fortunate enough and may we also have a plenty of fortunes, let it eat grass always and drink pure water grazing in the pasture.

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    Translation

    Fortunate mayest thou be with goodly pasture, and may we also be exceedingly wealthy. Feed on the grass, O Cow at every season and, coming hither, drink the limpid water.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११−(सूयवसात्) अदोऽनन्ने। पा० ३।२।६८। सुयवस+अद भक्षणे-विट्। शोभनानि यवसानि अन्नादीनि अदन्ती प्रजा (भगवती) बह्वैश्वर्ययुक्ता (हि) अवधारणे (भूयाः) (अध) अथ। अनन्तरम् (भगवन्तः) बह्वैश्वर्ययुक्ताः (स्याम) भवेम (अद्धि) अशान (तृणम्) घासम् (अघ्न्ये) अहिंसिके (विश्वदानीम्) दानीं च। पा० ५।३।१८। विश्व-दानीं प्रत्ययः सप्तम्यर्थे। विश्वदानीम्=सर्वदा-निरु० ११।४४। विश्वानि समग्राणि दानानि यस्यास्तां क्रियाम्, यथा दयानन्दभाष्ये ऋक्० १।१६४।४०। (पिब) (शुद्धम्) पवित्रम् (उदकम्) जलम् (आचरन्ती) अनुतिष्ठन्ती ॥

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