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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 76 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 76/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वा देवता - अपचिद् भैषज्यम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - गण्डमालाचिकित्सा सूक्त
    12

    यः कीक॑साः प्रशृ॒णाति॑ तली॒द्यमव॒तिष्ठ॑ति। निर्हा॒स्तं सर्वं॑ जा॒यान्यं यः कश्च॑ क॒कुदि॑ श्रि॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । कीक॑सा: । प्र॒ऽशृ॒णाति॑ । त॒ली॒द्य᳡म् । अ॒व॒ऽतिष्ठ॑ति । नि: । हा॒: । तम् । सर्व॑म् । जा॒यान्य॑म् । य: । क: । च॒ । क॒कुदि॑ । श्रि॒त: ॥८०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यः कीकसाः प्रशृणाति तलीद्यमवतिष्ठति। निर्हास्तं सर्वं जायान्यं यः कश्च ककुदि श्रितः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । कीकसा: । प्रऽशृणाति । तलीद्यम् । अवऽतिष्ठति । नि: । हा: । तम् । सर्वम् । जायान्यम् । य: । क: । च । ककुदि । श्रित: ॥८०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 76; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    १-५ रोगनाश

    पदार्थ

    (यः) जो [क्षय रोग] (कीकसाः) हँसली की हड्डियों को (प्रशृणाती) तोड़ देता है और (तलीद्यम्) हथेली और तलवे के चर्म पर (अवतिष्ठति) जम जाता है। (च) और (यः) जो (कः) कोई (ककुदि) शिर में (श्रितः) ठहरा हुआ है, (तम्) उस (सर्वम्) सब (जायान्यम्) क्षय रोग को [उस वैद्य ने] (निः) निरन्तर (हाः) नष्ट कर दिया है ॥३॥

    भावार्थ

    वैद्य रोगों के लक्षण जान कर उचित चिकित्सा करे ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(यः) जायान्यः (कीकसाः) अ० २।३३।२। जत्रुवक्षोगतास्थीनि (प्रशृणाति) प्रच्छिनत्ति (तलीद्यम्) हृसृरुहि०। उ० १।९७। तल प्रतिष्ठायाम्-इति प्रत्ययः, दीर्घश्चान्दसः। भवे छन्दसि। पा० ४।४।११०। यत्। तलिति तले करतलपदतले भवं चर्म (अवतिष्ठति) आश्रयति (निः) निरन्तरम् (हाः) अ० ६।१०३।२। हृञ् नाशने-लुङ्। अहाः। अहार्षीत्। नाशितवान् स वैद्य इति शेषः (तम्) (सर्वम्) (जायान्यम्) वदेरान्यः। उ० ३।१०४। जै क्षये-आन्य। क्षयम्। राजरोगम् (यः) (कः) (च) (ककुदि) अ० ३।४।२। उत्तमाङ्गे। शिरसि (श्रितः) अवस्थितः ॥

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    विषय

    राजयक्ष्मा

    पदार्थ

    १. (यः) = जो राजयक्ष्मा रोग (कीकसा:) = हड्डियों को (प्रशृणाति) = हिंसित करता है, हड्डियों में व्याप्त हो जाता है, (तलीद्यम्) = [तडित्-अन्तिकनाम-नि० २।१६] अस्थिसमीपगत मांस में (अवतिष्ठति) = स्थित होता है, अर्थात् जो मांस का शोषण करता है, (यः कः च) = और जो कोई कठिन राजयक्ष्मा नामक रोग (ककुदि श्रित:) = ग्रीवाके पृष्ठ भाग में संश्रित हुआ-हुआ शरीर को क्षीण करता है (तं सर्वम्) = उस सब शरीरगत सर्वधातुशोषक (जायान्यम्) = निरन्तर जाया संभोग से जायमान क्षयरोग को (निर्हा:) = औषध द्वारा दूर करे, नष्ट करे।

    भावार्थ

    संभोग के अतिशय के कारण उत्पन्न राजयक्ष्मा हड्डियों को, मांस को व ग्रीवा के पृष्ठभाग को हिंसित कर देता है। योग्य वैद्य उचित औषध-प्रयोग से इसे दूर करे।

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    भाषार्थ

    (यः) जो क्षयरोग (कीकसाः) छाती की अस्थियों को (प्रशृणाति) जीर्ण शीर्ण करता है, जो (तलीद्यम्) तलीद्य में (अवतिष्ठति) स्थित हो जाता है, (तम् सर्वं, जायान्यम्) उस सब जायान्य रोग को, तथा (यः कश्च) जो कोई क्षयरोग (ककुदि) ककुद् में (श्रितः) आश्रय पा लेता है उसे (निर्हाः) तू निःसारित कर।

    टिप्पणी

    [तलीद्यम्= अस्थि के समीप का मांस (सायण)। पैप्पलाद शाखा में "तलाभ्याम्" पाठ है, जिसका अभिप्राय है पैरों के तलुए। “अवतिष्ठति" में "अव" का अर्थ है "अवस्तात्" अर्थात् "नीचे" इस द्वारा पैरों के दो तलुए सूचित होते हैं। "जायान्यम्" निरन्तरं जायासंभोगेन जायमानं क्षयरोगम्" (सायण) अर्थात् अतिजायासंभोग से उत्पन्न क्षयरोग]।

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    विषय

    गण्डमाला की चिकित्सा और सुसाध्य के लक्षण।

    भावार्थ

    स्त्रीभोग से प्राप्त राजयक्ष्मा की उपाय। भा०- (यः) जो रोग (कीकसाः) पसलियों को (प्र शृणाति) तोड़ डालता है। और (तलीद्यम्) समीप के फेफड़ों में जाकर (अव-तिष्ठति) बैठता है। और (यः कः च) जो कोई रोग (ककुदि) गर्दन के नीचे कन्धों और पीठ के बीच में भी (श्रितः) जम जाता है (तं सर्वं) उस सब (जायान्यं) स्त्री द्वारा प्राप्त होने वाले राजयक्ष्मा रोग को (निर् हाः) शरीर से प्राण के बल से निकाल दो।

    टिप्पणी

    ‘यज्जायान्पोऽविन्दत् तज्जायेन्यस्य’ इति (तै० सं० २। ३। ५॥)

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। अपचित-भिषग् देवता। १ विराड् अनुष्टुप्। ३, ४ अनुष्टुप्। २ परा उष्णिक्। ५ भुरिग् अनुष्टुप्। ६ त्रिष्टुप्। षडर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Cure of Excrescences

    Meaning

    The contagion caused by sexual contact which degenerates the ribs or affects the soles or which affects and persists on the head, all that, O physician, cure.

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    Subject

    Jayanya (Through wife)

    Translation

    The consumptive disease (got through wife), which reaches the ribs, or which settles down in the soles (talidi) or whatsoever has set in the back (kakudi), all that, may you thrust out.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.80.3AS PER THE BOOK

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    Translation

    I, the physician destroy all scrofula which bores the breast-bones, which settles in the sole and which is harbored in the head.

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    Translation

    Expel and banish consumption, that breaks the ribs, that settles in the lungs, that harbors in the back, and that springs from excessive sexual intercourse.

    Footnote

    Consumption should be removed by the use of medicine, after consulting a physician.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(यः) जायान्यः (कीकसाः) अ० २।३३।२। जत्रुवक्षोगतास्थीनि (प्रशृणाति) प्रच्छिनत्ति (तलीद्यम्) हृसृरुहि०। उ० १।९७। तल प्रतिष्ठायाम्-इति प्रत्ययः, दीर्घश्चान्दसः। भवे छन्दसि। पा० ४।४।११०। यत्। तलिति तले करतलपदतले भवं चर्म (अवतिष्ठति) आश्रयति (निः) निरन्तरम् (हाः) अ० ६।१०३।२। हृञ् नाशने-लुङ्। अहाः। अहार्षीत्। नाशितवान् स वैद्य इति शेषः (तम्) (सर्वम्) (जायान्यम्) वदेरान्यः। उ० ३।१०४। जै क्षये-आन्य। क्षयम्। राजरोगम् (यः) (कः) (च) (ककुदि) अ० ३।४।२। उत्तमाङ्गे। शिरसि (श्रितः) अवस्थितः ॥

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