अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 89/ मन्त्र 4
ऋषिः - सिन्धुद्वीपः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - दिव्यआपः सूक्त
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एधो॑ऽस्येधिषी॒य स॒मिद॑सि॒ समे॑धिषीय। तेजो॑ऽसि॒ तेजो॒ मयि॑ धेहि ॥
स्वर सहित पद पाठएध॑: । अ॒सि॒ । ए॒धि॒षी॒य । स॒म्ऽइत् । अ॒सि॒ । सम् । ए॒धि॒षी॒य॒ । तेज॑: । अ॒सि॒ । तेज॑: । मयि॑ । धे॒हि॒ ॥९४.४॥
स्वर रहित मन्त्र
एधोऽस्येधिषीय समिदसि समेधिषीय। तेजोऽसि तेजो मयि धेहि ॥
स्वर रहित पद पाठएध: । असि । एधिषीय । सम्ऽइत् । असि । सम् । एधिषीय । तेज: । असि । तेज: । मयि । धेहि ॥९४.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विद्वानों की संगति का उपदेश।
पदार्थ
[हे विद्वन् !] तू (एधः) बढ़ा हुआ (असि) है, (एधिषीय) मैं बढ़ूँ, (समित्) तू प्रकाशमान (असि) है, मैं (सम्) ठीक-ठीक (एधिषीय) प्रकाशमान होऊँ। (तेजः असि) तू तेज है, (तेजः) तेज को (मयि) मुझ में (धेहि) धारण कर ॥४॥
भावार्थ
मनुष्य विद्यावृद्ध, तपोवृद्ध विद्वानों से सुशिक्षा पाकर उन्नति करते हुए तेजस्वी होवें ॥४॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है−२०।२३ ॥
टिप्पणी
४−(एधः) एध वृद्धौ-पचाद्यच्। प्रवृद्धः (असि) (एधिषीय) एध वृद्धौ-आशीर्लिङ्। अहं वर्धिषीय (समित्) ञि इन्धी दीप्तौ-क्विपि, नकारलोपः। प्रकाशमानः (असि) (सम्) सम्यक् (एधिषीय) ञिइन्धी दीप्तौ आशीर्लिङि छान्दसो नकारलोपो गुणश्च। इन्धिषीय। अहं समिद्धः प्रदीप्तः भूयासम् (तेजः) प्रकाशस्वरूपः (असि) (तेजः) प्रकाशम् (मयि) ब्रह्मचारिणि (धेहि) धारय ॥
विषय
एधः समित तेजः
पदार्थ
१. हे अने! (एधः असि) = [एध वृद्धौ] आप सदा से बढ़े हुए हो, (एधिषीय) = मैं भी स्वास्थ्य, नैर्मल्य व ज्ञान' की दृष्टि से बढ़ा हुआ बनें। हे प्रभो। आप (समित् असि) = [इन्ध] सम्यक् दीप्त हैं, मैं भी (समेधिषीय) = सम्यक् दीस बनूं। आप (तेजः असि) = तेज के पुञ्ज हैं, (मयि तेज: धेहि) = मुझमें तेज का आधान कीजिए।
भावार्थ
सदा से वृद्ध प्रभु मुझे बढ़ाएँ। दीप्त प्रभु की उपासना मुझे भी दीप्त करे, तेजस्वी प्रभु मुझमें तेज का आधान करें।
तेजस्वी बनकर यह अंग-प्रत्यंग में रसवाला 'अंगिरा:' बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -
भाषार्थ
(एधः) प्रवृद्ध (असि) [हे अग्नि, मन्त्र १] तू है, (एधिषीय) मैं भी वृद्धि प्राप्त करूं, (समिद् असि) सम्यक् प्रदीप्त तू है (सम् एधिषीय) मैं भी प्रदीप्ति द्वारा प्रवृद्ध होऊं। (तेजः असि) तू तेजोरूप या तेजस्वी है, (तेजः मयि धेहि) तेज मुझ में स्थापित कर।
टिप्पणी
[एधः= एध वृद्धौ (भ्वादिः)। एधिषीय= एध वृद्धौ, आशीर्लिङ सीयुट्। समिद् = सम् + इन्धी (दीप्तौ, रुधादिः)। मन्त्रवर्णन भौतिकाग्नि में सम्पन्न नहीं होता]।
विषय
ब्रह्मचर्य पालन।
भावार्थ
हे परमेश्वर ! आप (एधः असि) प्रकाशस्वरूप हो, मैं भी (एधिषीय) प्रकाशित होऊँ। हे परमेश्वर आप (समित् असि) अच्छी प्रकार दीप्तिमान् तेजस्वी हो, मैं भी (सम् एधिषीय) दीप्तिमान् तेजस्वी होऊँ। हे भगवन् ! (तेजः असि) आप तेजः-स्वरूप हो आप कृपा करके (मयि) मुझमें (तेजः) तेज को (धेहि) धारण कराइये।
टिप्पणी
‘समे धिषीय’ इति पदं यजुषि नास्ति। ‘एधोऽस्येधिषीमहि’ इति यजु०॥ अस्या ऋचो यजुर्वेदे प्रजापतिर्दीर्घतमाश्च ऋषिः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सिन्धुद्वीप ऋषिः। अग्निर्देवता। अनुष्टुप् छन्दः। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Divine Flow of Life
Meaning
O Samit, food of holy fire, you are the rising flame, the swell of the sea, raise me to the heights of prosperity. You are the light and splendour of the sun, lead me to the light, lustre and splendour of life.
Translation
O adorable Lord, you are flourishing; may I flourish. You are shining up; may I shine up. You are lustre; bestow lustre on me. (Also Yv. XX.23)
Comments / Notes
MANTRA NO 7.94.4AS PER THE BOOK
Translation
O Self-refulgent God! Thou art strang so may I be strong Thou art effulgent with your knowledge, so may I be brilliant with light of knowledge and Thou art vigor so give vigor unto me.
Translation
O God, Thou art Great, may I be great, Thou art Glorious, may I achieve glory. Thou art splendid, give splendor unto me.
Footnote
See Yajur, 38-25.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(एधः) एध वृद्धौ-पचाद्यच्। प्रवृद्धः (असि) (एधिषीय) एध वृद्धौ-आशीर्लिङ्। अहं वर्धिषीय (समित्) ञि इन्धी दीप्तौ-क्विपि, नकारलोपः। प्रकाशमानः (असि) (सम्) सम्यक् (एधिषीय) ञिइन्धी दीप्तौ आशीर्लिङि छान्दसो नकारलोपो गुणश्च। इन्धिषीय। अहं समिद्धः प्रदीप्तः भूयासम् (तेजः) प्रकाशस्वरूपः (असि) (तेजः) प्रकाशम् (मयि) ब्रह्मचारिणि (धेहि) धारय ॥
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