अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 16
वि॒षं गवां॑ यातु॒धाना॑ भरन्ता॒मा वृ॑श्चन्ता॒मदि॑तये दु॒रेवाः॑। परै॑णान्दे॒वः स॑वि॒ता द॑दातु॒ परा॑ भा॒गमोष॑धीनां जयन्ताम् ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒षम् । गवा॑म् । या॒तु॒ऽधाना॑: । भ॒र॒न्ता॒म् । आ । वृ॒श्च॒न्ता॒म् । अदि॑तये । दु॒:ऽएवा॑ । परा॑ । ए॒ना॒न् । दे॒व: । स॒वि॒ता । द॒दा॒तु॒ । परा॑ । भा॒गम् । ओष॑धीनाम् । ज॒य॒न्ता॒म् ॥३.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
विषं गवां यातुधाना भरन्तामा वृश्चन्तामदितये दुरेवाः। परैणान्देवः सविता ददातु परा भागमोषधीनां जयन्ताम् ॥
स्वर रहित पद पाठविषम् । गवाम् । यातुऽधाना: । भरन्ताम् । आ । वृश्चन्ताम् । अदितये । दु:ऽएवा । परा । एनान् । देव: । सविता । ददातु । परा । भागम् । ओषधीनाम् । जयन्ताम् ॥३.१६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(यातुधानाः) दुःखदायी जन [जो] (गवाम्) गौओं का (विषम्) जल (भरन्ताम्=हरन्ताम्) बिगाड़ें, [तो वे] (दुरेवः) दुराचारी लोग (अदितये) अखण्ड नीति के लिये (आ) सर्वथा (वृश्चन्ताम्) काट दिये जावें। (देवः) व्यवहार जाननेवाला (सविता) सर्वप्रेरक राजा (एनान्) उनको (पराददातु) दूर हटावे, और वे [राजपुरुष] उनके (ओषधीनाम्) ओषधियों [अन्न आदि वस्तुओं] के (भागम्) भाग को (परा जयन्ताम्) जीत लेवें ॥१६॥
भावार्थ
जो दुराचारी लोग गौ घाट आदि स्थानों को नष्ट करें, राजा उनको नीति अनुसार दण्ड देवे ॥१६॥
टिप्पणी
१६−(विषम्) विष्लृ व्याप्तौ-क। यद्वा। अन्येष्वपि दृश्यते। पा० ३।२।१०१। वि+ष्णा शौचे-ड। णलोपः, यद्वा, षच सेवने-ड। विषमित्युदकनाम विष्णातेर्विपूर्वस्य स्नातेः शुद्ध्यर्थस्य, विपूर्वस्य वा सचतेः-निरु० १२।२६। जलम् (गवाम्) धेनूनाम् (यातुधानाः) दुःखदायिनः (भरन्ताम्) हरन्ताम्। नाशयन्तु (आ) समन्तात् (वृश्चन्ताम्) यकारलोपः। वृश्च्यन्ताम्। छिन्ना भवन्तु (अदितये) अ० २।२८।४। अदितिः=वाक्-निघ० १।११। अखण्डायै नीतये (दुरेवाः) अ० ७।५०।७। दुष्टगतियुक्ताः (परा ददातु) निरस्यतु (एनान्) दुष्टान् (देवः) व्यवहारकुशलः (सविता) सर्वप्रेरको राजा (भागम्) अंशम् (ओषधीनाम्) व्रीहियवादीनाम् (परा जयन्ताम्) जयेन गृह्णन्तु राजपुरुषाः ॥
विषय
विष, न कि दूध
पदार्थ
१. (यातुधाना:) = गौओं को पीड़ित करके गौओं का दूध निकालनेवाले लोग (गवाम) = गौओं के (विषम्) = विष को (भरन्ताम्) = अपने में धारण करें। वस्तुत: जब गौओं को पीड़ित किया जाता है तब उनके दूध आदि में विष की उत्पत्ति हो जाती है। इस विषैले दूध को पीनेवाले लोग दूध क्या पीते हैं, विष ही पीते हैं। (अदितये) = शरीर के अखण्डन व स्वास्थ्य के लिए दूध का अतिमात्र प्रयोग करनेवाले ये (दुरेवा:) = [दूर एव] गलत मार्ग पर चलते हुए यातुधान (आवृश्चन्ताम्) = अपने स्वास्थ्य को छिन्न कर लें। इन दुराचारी यातुधानों का स्वास्थ्य उस विषैले दुध को पीने से नष्ट हो जाए। २. (सविता देवः) = वह प्रेरक देव (एनान्) = इन लोगों को (पराददातु) = स्वरभंग आदि अनुभवों को प्राप्त कराके इन अपकर्मों से पृथक् करे। ये लोग दूध के साथ (ओषधीनां भागम्) = ओषधियों के सेवनीय अंश को (पराजयन्ताम्) = [लभन्ताम्] प्राप्त करनेवाले हों। ('पयः पशूनां रसमोषधीनाम्') = इस मन्त्र की प्रेरणा के अनुसार ये पशुओं के अविषाक्त दूध तथा ओषधियों के रसों का सेवन करनेवाले बनें।
भावार्थ
गौ को पीड़ित करके प्राप्त किया गया दूध विषमय हो जाता है, उसका प्रयोग ठीक नहीं।
भाषार्थ
(यातुधानाः) यातना देने वाले (गवाम्) गौओं के (विषम्) विष अर्थात मूत्रजल को (भरन्ताम्) प्राप्त करें, और (दुरेवाः) ये दुष्टगति वाले (अदितये) पृथिवी के लिये (आ वृश्चन्ताम्) छिन्न-भिन्न कर दिये जाय। (सविता देवः) सर्वप्रेरक देव अर्थात् सम्राट् (एनान्) इन्हें (परा ददातु) निरस्त कर दे, देशनिकाला दे दे, (ओषधीनाम्) व्रीहि-यव आदि ओषधियों के (भागम्) भाग को (पराजयन्ताम्) वे हार जांय अर्थात् उससे भागरहित हो जॉय१, वञ्चित हो जाय।
टिप्पणी
[विषम् उदकनाम (निघं १।१२)। यातुधानों को गौ के दूध के स्थान में गोमूत्र२ रूपी जल पिलाना चाहिये। तथा पृथिवीवासियों के भले के लिये इन दुष्टों को मृत्युदण्ड देना चाहिये, तथा देशनिकाले का दण्ड देना चाहिये, तथा अन्न से वञ्चित कर इन्हें मरने देना चाहिये। व्याख्येय मन्त्र में “सविता देव” का अर्थ है सर्वप्रेरक सम्राट्। षू प्रेरणे (तुदादिः)]। [१. तथा रुग्णावस्था में औषधोपचार से वञ्चित कर दिये जाय। २. गोमूत्र शोधक तथा औषध रूप भी है। इसे हिन्दू पञ्चगव्य के अङ्गरूप में भी देते हैं। गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ में चक्षूरोग में इसे कई वर्षों तक प्रयुक्त किया जाता रहा है। तथा देखो मन्त्र १७ की भावना, दण्डरूप में गोदुग्ध से उसे वञ्चित रखने को।]
विषय
प्रजा पीडकों का दमन।
भावार्थ
यदि (यातुधानाः) प्रजापीड़क लोग (गवाम्) गौ आदि पशुओं को (विषम्) विष (भरन्ताम्) दें और उनको मार डालें और यदि (दुरेवाः) दुष्ट चालचलन के लोग (अदितये) गाय को (आ वृश्चन्ताम्) काटें तब (देवः) राजा (सविता) सबका प्रेरक (एनान्) इनको (परा ददातु) राज्य से दूर करे या इनका सर्वस्व हर ले और वे (ओषधीनाम्) अन्न आदि और रोगनाशक ओषधियों के (भागम्) भाग-जीवनोपयोगी अंश को भी (परा जयन्ताम्) न पा सकें। अर्थात् पशुनाशक लोगों का सर्वस्व लेकर राजा उन्हें देश से निकाल दे और वे अन्न और औषध न पा सकें और रोगों से मरे।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘वृश्च्यन्ताम्’ (तृ०) ‘परैनान्देवः’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
चातन ऋषिः। अग्निर्देवता, रक्षोहणम् सूक्तम्। १, ६, ८, १३, १५, १६, १८, २०, २४ जगत्यः। ७, १४, १७, २१, १२ भुरिक्। २५ बृहतीगर्भा जगती। २२,२३ अनुष्टुभो। २६ गायत्री। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Destruction of the Evil
Meaning
If the violent people bear off or pollute water meant for cows, the evil doers must fall for their offence to the cow. Let refulgent and noble Savita, the ruler, throw them out, and they must forfeit their share of herbs and greenery.
Translation
The tormentors, who administer poison to cows, and those of evil ways, who slaughter them, may the impeller Lord, banish them faraway; let them forfeit their share of plants.
Translation
If the persons torturing public give Poison to cow, if evil- monger slaughter the cow let the mighty and reformer ruler confiscate there belongings and keep them deprived of the share of juice of the herbaceous plants.
Translation
The fiends who poison the cows, the evil doers who cut the cow into pieces, let the king, the urger of ail, banish, them from his state, and their share of herbs and plants be denied them.
Footnote
This verse is a clear condemnation of flesh eating. Verse 15th also condemns the eating of flesh.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१६−(विषम्) विष्लृ व्याप्तौ-क। यद्वा। अन्येष्वपि दृश्यते। पा० ३।२।१०१। वि+ष्णा शौचे-ड। णलोपः, यद्वा, षच सेवने-ड। विषमित्युदकनाम विष्णातेर्विपूर्वस्य स्नातेः शुद्ध्यर्थस्य, विपूर्वस्य वा सचतेः-निरु० १२।२६। जलम् (गवाम्) धेनूनाम् (यातुधानाः) दुःखदायिनः (भरन्ताम्) हरन्ताम्। नाशयन्तु (आ) समन्तात् (वृश्चन्ताम्) यकारलोपः। वृश्च्यन्ताम्। छिन्ना भवन्तु (अदितये) अ० २।२८।४। अदितिः=वाक्-निघ० १।११। अखण्डायै नीतये (दुरेवाः) अ० ७।५०।७। दुष्टगतियुक्ताः (परा ददातु) निरस्यतु (एनान्) दुष्टान् (देवः) व्यवहारकुशलः (सविता) सर्वप्रेरको राजा (भागम्) अंशम् (ओषधीनाम्) व्रीहियवादीनाम् (परा जयन्ताम्) जयेन गृह्णन्तु राजपुरुषाः ॥
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