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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 23
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - शाला छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शाला सूक्त
    47

    इ॒मा आपः॒ प्र भ॑राम्यय॒क्ष्मा य॑क्ष्म॒नाश॑नीः। गृ॒हानुप॒ प्र सी॑दाम्य॒मृते॑न स॒हाग्निना॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मा: । आप॑: । प्र । भ॒रा॒मि॒ । अ॒य॒क्ष्मा: । य॒क्ष्म॒ऽनाश॑नी: । गृ॒हान् । उप॑ । प्र । सी॒दा॒मि॒ । अ॒मृते॑न । स॒ह । अ॒ग्निना॑ ॥३.२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमा आपः प्र भराम्ययक्ष्मा यक्ष्मनाशनीः। गृहानुप प्र सीदाम्यमृतेन सहाग्निना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमा: । आप: । प्र । भरामि । अयक्ष्मा: । यक्ष्मऽनाशनी: । गृहान् । उप । प्र । सीदामि । अमृतेन । सह । अग्निना ॥३.२३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 3; मन्त्र » 23
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शाला बनाने की विधि का उपदेश।[इस सूक्त का मिलान अथर्व काण्ड ३ सूक्त १२ से करो]

    पदार्थ

    (इमाः) इस (अयक्ष्माः) रोगरहित (यक्ष्मनाशनीः) रोगनाशक (अपः) जल को (प्र) अच्छे प्रकार (आ भरामि) मैं लाता हूँ। (अमृतेन) मृत्यु से बचानेवाले अन्न, घृत, दुग्धादि सामग्री और (अग्निना सह) अग्नि के सहित (गृहान्) घरों में (उप=उपेत्य) आकर (प्र) अच्छे प्रकार (सीदामि) मैं बैठता हूँ ॥२३॥

    भावार्थ

    गृहपति रोगों से बचने और स्वास्थ्य बढ़ाने के लिये अपने घरों में शुद्ध, जल, अग्नि आदि पदार्थों का सदा उचित प्रयोग करें ॥२३॥ यह मन्त्र पहिले आ चुका है-अ० ३।१२।९ ॥

    टिप्पणी

    २३-अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० ३।१२।९ ॥

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    विषय

    अयक्ष्माः, आपः, अमृता अग्निः

    पदार्थ

    १. (इमाः आप:) = इन जलों को जोकि (अयक्ष्मा:) = रोगरहित हैं-जिनमें किन्हीं रोगकृमियों के होने की आशंका नहीं है और जो (यक्ष्मनाशनी:) = रोगों का नाश करनेवाले हैं, उन जलों को (प्रभरामि) = मैं घर में प्रकर्षण प्राप्त कराता हूँ। २. मैं (गृहान्) = इन घरों को (उपप्रसीदामि) = समीपता से, प्रसन्नतापूर्वक प्राप्त होता हूँ-इन घरों में प्रसन्नतापूर्वक स्थित होता हूँ जोकि (अमृतेन अग्निना सह) = कभी न मरनेवाली-कभी न बुझनेवाली व नीरोगता प्राप्त करानेवाली यज्ञाग्नि के साथ है यज्ञाग्नि से युक्त हैं।

    भावार्थ

    हमारे घर रोगनाशक जलों से युक्त हों तथा इन घरों में नीरोगता प्राप्त करानेवाली यज्ञाग्नि कभी बुझे नहीं।

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    भाषार्थ

    (अहिंसतिम्) हिंसा न करने वाली [अर्थात् रक्षा करने वाली], (प्रतीचीम्) मेरी ओर मुखवाली (शाले) हे शाला ! (त्वा प्रतीचीनः) तेरी ओर मुखवाला (प्रैमि) मैं जाता हूं। (अग्निः आपः च) अग्नि और जल (ऋतस्य) यज्ञ के (प्रथमा=प्रथमौ) दो मुख्य (द्वाः) द्वार है, साधन हैं [उन्हें] (अन्तः) तेरे भीतर (प्रभरामि) मैं लाता हूं। (इमाः आपः) ये जल (अयक्ष्माः) यक्ष्मरोग रहित हैं, (यक्ष्मनाशनीः) और यक्ष्म रोग का नाश करते हैं। तथा (अमृतेन) अमृत (अग्निना सह) अग्नि के साथ (गृहान्) घरों में (उप सीदामि) उपस्थित होता हूं, तथा (प्रसीदामि) प्रसन्न होता हूं।

    टिप्पणी

    [अग्नि और जल गृहस्थ-यज्ञ के दो मुख्य साधन हैं। जल ऐसे स्थान से लाने चाहिये जहां यक्ष्म रोग न हो। जल चिकित्सा यक्ष्म रोग का नाश करती है। घरों में अग्निहोत्र आदि करते रहना चाहिये। यज्ञाग्नि अमृतव का अर्थात् शीघ्र न मरने का साधन है। इस से घर में प्रसन्नता बढ़ती है। घर से बाहिर जब जाय तो घर की ओर पीठ करता हुआ न जाय।

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    विषय

    शाला, महाभवन का निर्माण और प्रतिष्ठा।

    भावार्थ

    मैं (इमाः) इन (यक्ष्म-नाशनीः) रोगजनक जन्तुओं का नाश करने वाले, और (अयक्ष्मा) रोगरहित (आपः) जलों को (प्र भरामि) लाता हूं। और (अग्निना) अग्नि (अमृतेन) अन्न और जल के (सह) साथ अपने (गृहान्) गृह के बन्धुओं के पास (उप प्र सीदामि) आता हूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्वङ्गिरा ऋषिः। शाला देवता। १, ५ , ८, १४, १६, १८, २०, २२, २४ अनुष्टुभः। ६ पथ्यापंक्तिः। ७ परा उष्णिक्। १५ त्र्यवसाना पञ्चपदातिशक्वरी। १७ प्रस्तारपंक्तिः। २१ आस्तारपंक्तिः। २५, ३१ त्रिपादौ प्रजापत्ये बृहत्यौ। २६ साम्नी त्रिष्टुप्। २७, २८, २९ प्रतिष्ठा नाम गायत्र्यः। २५, ३१ एकावसानाः एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Good House

    Meaning

    I bear and bring these waters, free from ailments of consumption, the water indeed are destroyers of consumptive diseases. Thus do I sit and live in different quarters of the home with imperishable fire, home fire and the holy fire of yajna.

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    Translation

    I bring in these waters free form wasting disease and destroyers of wasting disease. Joyfully, I enter the dwellings along with the immortal fire. (Also Av. III.12.9) `

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    Translation

    I bring herein the waters which destroy all the consumption and are free from the germs of consumption. I with the fire immortal enter the house. (The fire of yajna should always be kept in the house unextinguished).

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    Translation

    Water that kills consumption, free from all consumption, here I bring. With food, butter, milk, saviors from death and fire, I enter and possess the house.

    Footnote

    See Atharvaveda, 3-12-9. A householder must always keep milk, butter, corn, water and fire in the house.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २३-अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० ३।१२।९ ॥

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