अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 16
ऋषिः - भृगुः
देवता - अजः पञ्चौदनः
छन्दः - त्रिपदानुष्टुप्
सूक्तम् - अज सूक्त
19
अ॒जो॒स्यज॑ स्व॒र्गोसि॒ त्वया॑ लो॒कमङ्गि॑रसः॒ प्राजा॑नन्। तं लो॒कं पुण्यं॒ प्र ज्ञे॑षम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ज: । अ॒सि॒ । अज॑ । स्व॒:ऽग: । अ॒सि॒ । त्वया॑ । लो॒कम् । अङ्गि॑रस: । प्र । अ॒जा॒न॒न् । तम् । लो॒कम् । पुण्य॑म् । प्र । ज्ञे॒ष॒म् ॥५.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
अजोस्यज स्वर्गोसि त्वया लोकमङ्गिरसः प्राजानन्। तं लोकं पुण्यं प्र ज्ञेषम् ॥
स्वर रहित पद पाठअज: । असि । अज । स्व:ऽग: । असि । त्वया । लोकम् । अङ्गिरस: । प्र । अजानन् । तम् । लोकम् । पुण्यम् । प्र । ज्ञेषम् ॥५.१६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मज्ञान से सुख का उपदेश।
पदार्थ
(अज) हे अजन्मे जीवात्मा ! (अजः असि) तू गतिशील है, (स्वर्गः असि) तू सुख प्राप्त करनेवाला है, (त्वया) तेरे साथ (अङ्गिरसः) बुद्धिमानों ने (लोकम्) देखने योग्य परमात्मा को (प्र) अच्छे प्रकार (अजानन्) जाना है। (तम्) उस (पुण्यम्) पवित्र (लोकम्) देखने योग्य परमात्मा को (प्र ज्ञेषम्) मैं अच्छे प्रकार जानूँ ॥१६॥
भावार्थ
ज्ञानी पुरुषों ने जीवात्मा को ज्ञानी बनाकर परमात्मा को पाया है, इसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य ज्ञानवान् होकर सर्वव्यापक परमेश्वर के दर्शन से आनन्दित होवे ॥१६॥ इस मन्त्र का अन्तिम पाद-यजु० २०।२५। में है ॥
टिप्पणी
१६−(अजः) गतिशीलः (असि) (अज) हे अजन्मन् जीवात्मन् (स्वर्गः) सुखप्रापकः (असि) (त्वया) (लोकम्) द्रष्टव्यं परमात्मानम् (अङ्गिरसः) अ० २।१२।४। ज्ञानिनः (प्र) (अजानन्) ज्ञातवन्तः (तम्) प्रसिद्धम् (लोकम्) दर्शनीयमीश्वरम् (पुण्यम्) पवित्रम् (प्र) (ज्ञेषम्) सिब् बहुलं लेटि। पा० ३।१।३४। जानातेर्लेटि। सिपीटि च रूपम्। जानीयाम् ॥
विषय
अज-स्वर्ग
पदार्थ
१. हे (अज) = [अज गतिक्षेपणयोः] गतिशील जीव! तू (अजः असि) = गति के द्वारा बुराइयों को अपने से दूर फेंकनेवाला है। बुराइयों को दूर फेंककर (स्वर्ग: असि) = प्रकाश व सुख की ओर जानेवाला है। (त्वया) = तेरे साथ (अङ्गिरस:) = अङ्ग-अङ्ग में रसवाले ये गतिशील लोग (लोकं प्रजानन्) = उस प्रकाशमय प्रभु को जान पाते हैं। तैरे साथ ज्ञानचर्चा करते हुए वे अङ्गिरस् प्रभु का ज्ञान प्राप्त करते हैं। २. मनुष्य यही कामना करे कि (तम्) = उस (लोकम्) = प्रकाशमय (पुण्यम्) = पवित्र प्रभु को (प्रज्ञेषम्) = मैं जान पाऊँ। अन्ततः यह ज्ञान ही मनुष्य का कल्याण करनेवाला है।
भावार्थ
जीव 'अज' है, 'स्वर्ग' है। उसे गतिशील बनकर बुराई को अपने से परे फेंक कर प्रकाश प्राप्त करना है। उसके साथ ज्ञानचर्चा करते हुए अन्य लोग भी प्रभु को जान पाएँ। दम 'धान' की एक ही कामना हो कि 'मैं रम प्रकाशमय पवित्र प्रभु को प्राप्त कर पा'।
भाषार्थ
(अज) हे अजन्मा परमेश्वर ! (अजः असि) तु सदा से जन्म रहित है, अकाय है, (स्वर्गः असि) तू स्वर्गरूप है, (अङ्गिरसः) प्राण विद्या के विज्ञों ने (त्वया) तेरी कृपा द्वारा (लोकम्) नाक को (प्राजानन्) जाना है। (तं पुण्यं लोकम्) उस पुण्य लोक को (प्रज्ञेषम्) तेरी कृपा से मैं भी जानूं।
टिप्पणी
[यह कथन जीवन्मुक्त मुमुक्षु का है, क्या यह प्रार्थना अज (बकरा) कर सकता है ?]
विषय
अज के दृष्टान्त से पञ्चौदन आत्मा का वर्णन।
भावार्थ
हे आत्मन् ! (अजः असि) तू अजन्मा है। हे (अज) अजन्मन् ! आत्मन् ! तू (स्वर्गः असि) स्वयं स्वर्ग अर्थात् स्वः=परम तेजोमय परमात्मपद तक प्राप्त होने में समर्थ है। (त्वया) तेरी साधना से (अङ्गिरसः) ज्ञानी पुरुष (लोकम्) परम ‘लोक’ नाम से विख्यात परमेश्वर का (प्राजानन्) ज्ञान करते हैं। (तम्) उस परम (लोकम्) सबके साक्षी, सर्वद्रष्टा, सबके प्राप्त करने योग्य परमात्मा को मैं मुमुक्षु जन (पुण्यम्) पुण्य, परम पवित्र पद ही (प्र ज्ञेषम्) जानता हूं।
टिप्पणी
(तृ०) तं लोकं पुण्यं प्रज्ञेषं यत्र देवाः सहाग्निना। इति यजु० २०। २५ तृ० च०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। अजः पञ्चोदनो देवता। १, २, ५, ९, १२, १३, १५, १९, २५, त्रिष्टुभः, ३ चतुष्पात् पुरोऽति शक्वरी जगती, ४, १० नगत्यौ, १४, १७,२७, ३०, अनुष्टुभः ३० ककुम्मती, २३ पुर उष्णिक्, १६ त्रिपाद अनुष्टुप्, १८,३७ त्रिपाद विराड् गायत्री, २४ पञ्चपदाऽनुपटुबुष्णिग्गर्भोपरिष्टाद्बर्हता विराड् जगती २०-२२,२६ पञ्चपदाउष्णिग् गर्भोपरिष्टाद्बर्हता भुरिजः, ३१ सप्तपदा अष्टिः, ३३-३५ दशपदाः प्रकृतयः, ३६ दशपदा प्रकृतिः, ३८ एकावसाना द्विपदा साम्नी त्रिष्टुप, अष्टात्रिंशदर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Soul, the Pilgrim
Meaning
O soul, you are Aja, unborn and undying. O soul immortal, you are svarga, reaching to the heaven of bliss. Through you, the brilliant wise sages, Angirasas, know and reach the heaven of light and bliss. May I too, knowing through the soul, realise and reach that heaven of holiness and bliss of Divinity.
Translation
O unborn (pancaudana), you are not born, you are going to the world of bliss. Through you, the austere sages (angirases) came to realize their world. May I realize that pious and virtuous world.
Translation
O eternal soul ! thou art unbegotten by nature, thou hast the attribute of pleasure by nature, the learned and ascetic persons know Loka. Divinity through thee. May I, the devotee know that God who is holy by nature.
Translation
O soul, thou art unborn, and full of joy. Through thee, the sages realise God. May I know that Holy God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१६−(अजः) गतिशीलः (असि) (अज) हे अजन्मन् जीवात्मन् (स्वर्गः) सुखप्रापकः (असि) (त्वया) (लोकम्) द्रष्टव्यं परमात्मानम् (अङ्गिरसः) अ० २।१२।४। ज्ञानिनः (प्र) (अजानन्) ज्ञातवन्तः (तम्) प्रसिद्धम् (लोकम्) दर्शनीयमीश्वरम् (पुण्यम्) पवित्रम् (प्र) (ज्ञेषम्) सिब् बहुलं लेटि। पा० ३।१।३४। जानातेर्लेटि। सिपीटि च रूपम्। जानीयाम् ॥
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