ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 11/ मन्त्र 3
स त्वम॒स्मदप॒ द्विषो॑ युयो॒धि जा॑तवेदः । अदे॑वीरग्ने॒ अरा॑तीः ॥
स्वर सहित पद पाठसः । त्वम् । अ॒स्मत् । अप॑ । द्विषः॑ । यु॒यो॒धि । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । अदे॑वीः । अ॒ग्ने॒ । अरा॑तीः ॥
स्वर रहित मन्त्र
स त्वमस्मदप द्विषो युयोधि जातवेदः । अदेवीरग्ने अरातीः ॥
स्वर रहित पद पाठसः । त्वम् । अस्मत् । अप । द्विषः । युयोधि । जातऽवेदः । अदेवीः । अग्ने । अरातीः ॥ ८.११.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 11; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 35; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 35; मन्त्र » 3
विषय - ईश्वर की प्रार्थना इससे कही जाती है ।
पदार्थ -
(जातवेदः) हे सर्वज्ञ ! हे सर्वविज्ञानकारण हे सर्वधन (सः+त्वम्) वह तू (अस्मत्) हम लोगों से (द्विषः) द्वेषों और शत्रुओं को (अप+युयोधि) दूर कर दे । (अग्ने) हे ईश ! तू (अदेवीः) देवोपासनारहित (अरातीः) दुःखकारिणी शत्रुताओं को भी दूर कर दे ॥३ ॥
भावार्थ - ईश्वरोपासक प्रथम सर्व द्वेषों और कामादिक शत्रुओं को दूर करें । तदर्थ परमात्म-प्रार्थना भी करें ॥३ ॥
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