ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 22/ मन्त्र 1
ओ त्यम॑ह्व॒ आ रथ॑म॒द्या दंसि॑ष्ठमू॒तये॑ । यम॑श्विना सुहवा रुद्रवर्तनी॒ आ सू॒र्यायै॑ त॒स्थथु॑: ॥
स्वर सहित पद पाठओ इति॑ । त्यम् । अ॒ह्वे॒ । आ । रथ॑म् । अ॒द्य । दंसि॑ष्ठम् । ऊ॒तये॑ । यम् । अ॒श्वि॒ना॒ । सु॒ऽह॒वा॒ । रु॒द्र॒ऽव॒र्त॒नी॒ इति॑ रुद्रऽवर्तनी । आ । सू॒र्यायै॑ । त॒स्थथुः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ओ त्यमह्व आ रथमद्या दंसिष्ठमूतये । यमश्विना सुहवा रुद्रवर्तनी आ सूर्यायै तस्थथु: ॥
स्वर रहित पद पाठओ इति । त्यम् । अह्वे । आ । रथम् । अद्य । दंसिष्ठम् । ऊतये । यम् । अश्विना । सुऽहवा । रुद्रऽवर्तनी इति रुद्रऽवर्तनी । आ । सूर्यायै । तस्थथुः ॥ ८.२२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 22; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
विषय - इस सूत्र से राजधर्मों का उपदेश करेंगे ।
पदार्थ -
मैं विद्वान् पुरुष (अद्य) आज शुभदिन में या विपन्न दिन में (दंसिष्ठम्) परमकमनीय या अतिशय शत्रुविनाशक (त्यम्+रथम्) उस सुप्रसिद्ध रमणीय अत्यन्त गमनशील विमान को (ओ) सर्वत्र (ऊतये) रक्षा के लिये (आ+अह्वे) बनाता हूँ या आह्वान करता हूँ, (यम्) जिस रथ के ऊपर (सुहवा) जो सर्वत्र अच्छी तरह से बुलाये जाते हैं या जिनका बुलाना सहज है और (रुद्रवर्तनी) जिनका मार्ग प्रजा की दृष्टि में भयङ्कर प्रतीत होता है, (अश्विनौ) ऐसे हे राजा और अमात्यवर्ग ! आप दोनों (सूर्य्यायै) महाशक्ति के लाभ के लिये (आ+तस्थथुः) बैठेंगे ॥१ ॥
भावार्थ - विद्वानों को उचित है कि नूतन-२ रथ और विमान आदि वस्तु का आविष्कार करें, जिनसे राज्यव्यवस्था में सुविधा और शत्रुओं पर आतङ्क जम जाए ॥१ ॥
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