अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 2/ मन्त्र 7
सूक्त - नारायणः
देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
हन्वो॒र्हि जि॒ह्वामद॑धात्पुरू॒चीमधा॑ म॒हीमधि॑ शिश्राय॒ वाच॑म्। स आ व॑रीवर्ति॒ भुव॑नेष्व॒न्तर॒पो वसा॑नः॒ क उ॒ तच्चि॑केत ॥
स्वर सहित पद पाठहन्वो॑: । हि । जि॒ह्वाम् । अद॑धात् । पु॒रू॒चीम् । अध॑ । म॒हीम् । अधि॑ । शि॒श्रा॒य॒ । वाच॑म् । स: । आ । व॒री॒व॒र्ति॒ । भुव॑नेषु । अ॒न्त: । अ॒प: । वसा॑न: । क: । ऊं॒ इति॑ । तत् । चि॒के॒त॒ ॥२.७॥
स्वर रहित मन्त्र
हन्वोर्हि जिह्वामदधात्पुरूचीमधा महीमधि शिश्राय वाचम्। स आ वरीवर्ति भुवनेष्वन्तरपो वसानः क उ तच्चिकेत ॥
स्वर रहित पद पाठहन्वो: । हि । जिह्वाम् । अदधात् । पुरूचीम् । अध । महीम् । अधि । शिश्राय । वाचम् । स: । आ । वरीवर्ति । भुवनेषु । अन्त: । अप: । वसान: । क: । ऊं इति । तत् । चिकेत ॥२.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 7
भाषार्थ -
(हन्वोः) किस ने दो जबाड़ों में (पुरूचीम्) लम्बी या बहुगतिका (जिह्वाम्, अदधात्) जिह्वा को स्थापित किया है, (अधा) तत्पश्चात् (महीम्, वाचम्) महती वाणी को (अधि शिश्राय) उस पर आश्रित किया है। (सः) वह (अपः वसानः) प्रकृति की ओड़नी ओढ़े हुआ (भुवनेषु अन्त) भुवनों के भीतर (आ वरीवर्ति) बार-बार आता है, (कः उ तत् चिकेत) कौन उसे सम्यक्तया जानता है।
टिप्पणी -
[मन्त्र में परमेश्वर का वर्णन है जोकि प्रलयों के पश्चात् भुवनों के भीतर, प्रत्येक सृष्टि में वार-वार आता है। “अपः” का अर्थ है “व्यापक प्रकृति”, आप्लृ व्याप्तौ। यह प्रकृति, परमेश्वर का वस्त्र है, जिस से ढका हुआ वह भुवनों में विचरता है। “अपः” का अर्थ “कर्म” भी होता है। परमेश्वर के कर्म हैं, – रचना, स्थिति, कर्मफल प्रदान, प्रलय आदि। इनकी ओढ़नी ओढ़े हुए परमेश्वर भुवनों में विचरता है]