अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 6/ मन्त्र 2
सूक्त - बृहस्पतिः
देवता - फालमणिः, वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त
वर्म॒ मह्य॑म॒यं म॒णिः फाला॑ज्जा॒तः क॑रिष्यति। पू॒र्णो म॒न्थेन॒ माग॑म॒द्रसे॑न स॒ह वर्च॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठवर्म॑ । मह्य॑म् । अ॒यम् । म॒णि: । फाला॑त् । जा॒त: । क॒रि॒ष्य॒ति॒ । पू॒र्ण: । म॒न्थेन॑ । मा॒ । आ । अ॒ग॒म॒त् । रसे॑न । स॒ह । वर्च॑सा ॥६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
वर्म मह्यमयं मणिः फालाज्जातः करिष्यति। पूर्णो मन्थेन मागमद्रसेन सह वर्चसा ॥
स्वर रहित पद पाठवर्म । मह्यम् । अयम् । मणि: । फालात् । जात: । करिष्यति । पूर्ण: । मन्थेन । मा । आ । अगमत् । रसेन । सह । वर्चसा ॥६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(फालात्) हल की धार अर्थात् फाल से (जातः) उत्पन्न हुआ (अयम् मणिः) यह श्रेष्ठ कृष्यन्न१, (मह्यम्) मेरे लिये (वर्म) कवच का निर्माण (करिष्यति) करेगा। (मन्थेन) मठे द्वारा और (रसेन) रस द्वारा (पूर्णः) परिपूर्ण हुआ यह कृष्यन्न, (वर्चसा सह) वर्चस् अर्थात् शारीरिक कान्ति के साथ (मा) मुझे (अगमत्) प्राप्त हुआ है।
टिप्पणी -
[कृष्यन्न मणि है, श्रेष्ठ रत्नरूप है। "जातौ जातौ यदुत्कृष्टं तद्रत्नमभिधीयते" (मल्लिनाथ)। वन्यान्न की अपेक्षया कृष्यन्न शक्तिप्रदान में श्रेष्ठ है, अतः मणिरूप हैं। यह अन्न मनुष्यों की रक्षा करता है, अतः कवच हैं। अन्न के विना मृत्यु हो जाती है। परन्तु कृष्यन्न तब पूर्ण अन्न होता है जब कि मठे और दुग्धरस तथा ओषधिरसों का इस के साथ सहयोग हो, अन्यथा केवल कृष्यन्न अपूर्ण अन्न है। इन मिश्रित अन्नों के सेवन द्वारा वर्चस प्राप्त होता है। "कृष्यन्न द्वारा गौ पशुओं का चारा तैयार होता है, गौओं से दूध और दूध से दधि और मठा (मन्थ) मिलता है। यथा “पयः पशूनां रसमोषधीनां बृहस्पतिः सविता मे प्रयच्छात्" (अथर्व० १९।३१।५)।] [१. मन्त्र में कृष्यन्न का वर्णन है। देखो "कृषिमभिरक्षतः" (मन्त्र १२)।]