अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 3/ मन्त्र 20
सूक्त - अथर्वा
देवता - बार्हस्पत्यौदनः
छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप्
सूक्तम् - ओदन सूक्त
यस्मि॑न्त्समु॒द्रो द्यौर्भूमि॒स्त्रयो॑ऽवरप॒रं श्रि॒ताः ॥
स्वर सहित पद पाठयस्मि॑न् । स॒मु॒द्र: । द्यौ: । भूमि॑: । त्रय॑: । अ॒व॒र॒ऽप॒रम् । श्रि॒ता: ॥३.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्मिन्त्समुद्रो द्यौर्भूमिस्त्रयोऽवरपरं श्रिताः ॥
स्वर रहित पद पाठयस्मिन् । समुद्र: । द्यौ: । भूमि: । त्रय: । अवरऽपरम् । श्रिता: ॥३.२०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 3; मन्त्र » 20
भाषार्थ -
(यस्मिन्) जिस ओदन में (समुद्रः) अन्तरिक्ष, (द्यौः) द्युलोक, (भूमिः) और भूमि (त्रयः) ये तीन लोक (अवरपरम्) अधरोत्तरभाव में, अर्थात् परस्पर नीचे-ऊपर रूप में (श्रिताः) आश्रित हैं।
टिप्पणी -
[समुद्रः अन्तरिक्षनाम (निघं० १।३)। जलमय पार्थिव-समुद्र तो भूमि के ही अन्तर्गत है। यह ओदन स्पष्टतया परमेश्वर है जिस के आश्रय में तीन लोक आश्रित हैं। इस से स्पष्ट प्रतीत होता है कि इन मन्त्रों में ओदन द्वारा परमेश्वर का ही मुख्य वर्णन अभिप्रेत हैं जो कि आध्यात्मिक भोजन है, और प्रासङ्गिकतया पाकशालीय ओदन का वर्णन भी हुआ है जो कि शारीरिक भोजन है। अभिप्राय यह पाकशालीय ओदन द्वारा शारीरिक पुष्टि के साथ-साथ आध्यात्मिक ओदन द्वारा आत्मा का भी पोषण करते रहना चाहिये]।