अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 4/ मन्त्र 1
सूक्त - भार्गवो वैदर्भिः
देवता - प्राणः
छन्दः - शङ्कुमत्यनुष्टुप्
सूक्तम् - प्राण सूक्त
प्रा॒णाय॒ नमो॒ यस्य॒ सर्व॑मि॒दं वशे॑। यो भू॒तः सर्व॑स्येश्व॒रो यस्मि॒न्त्सर्वं॒ प्रति॑ष्ठितम् ॥
स्वर सहित पद पाठप्रा॒णाय॑ । नम॑: । यस्य॑ । सर्व॑म् । इ॒दम् । वशे॑ । य: । भू॒त: । सर्व॑स्य । ई॒श्व॒र: । यस्मि॑न् । सर्व॑म् । प्रति॑ऽस्थितम् ॥६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे। यो भूतः सर्वस्येश्वरो यस्मिन्त्सर्वं प्रतिष्ठितम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्राणाय । नम: । यस्य । सर्वम् । इदम् । वशे । य: । भूत: । सर्वस्य । ईश्वर: । यस्मिन् । सर्वम् । प्रतिऽस्थितम् ॥६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(प्राणाय नमः) प्राण को नमस्कार हो, (यस्य) जिस के (वशे) वश में (इदं सर्वम्) यह सब जगत् है। (भूतः) अनादिकाल से वर्तमान सत्स्वरूप (यः) जो प्राण (सर्वस्य) समग्र जगत् का (ईश्वरः) अधीश्वर है, (यस्मिन्) और जिस में (सर्वम्) समग्र जगत् (प्रतिष्ठितम्) स्थित है।
टिप्पणी -
[समग्र जगत् का मुख्य प्राण परमेश्वर है। जड़-चेतन जगत के प्रत्येक पदार्थ में अपना अपना प्राण है, जिस के कारण उस-उस पदार्थ की सत्ता बनी रहती है। यह प्रातिस्विक प्राण परमेश्वररूपी प्राण द्वारा पदार्थमात्र को प्राप्त है, क्योंकि प्रत्येक की स्थिति परमेश्वराश्रित है। परमेश्वर के नियमानुसार, जब परमेश्वर, इन पदार्थों में प्राणशक्ति अर्थात् इन की स्थिति को कायम रखने की शक्ति को हर लेता है तो उस महाप्रलय में सब पदार्थ प्रकृतिरूपी उपादान कारण में विलीन हो जाते हैं, और प्राणशक्ति को पुनः प्राप्त कर सृष्टिकाल में पुनः सत्तावान् हो जाते हैं]।