अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 9/ मन्त्र 19
सूक्त - काङ्कायनः
देवता - अर्बुदिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
प्रब्ली॑नो मृदि॒तः श॑यां ह॒तोऽमित्रो॑ न्यर्बुदे। अ॑ग्निजि॒ह्वा धू॑मशि॒खा जय॑न्तीर्यन्तु॒ सेन॑या ॥
स्वर सहित पद पाठप्रऽब्ली॑न: । मृ॒दि॒त: । श॒या॒म् । ह॒त: । अ॒मित्र॑: । नि॒ऽअ॒र्बु॒दे॒ । अ॒ग्नि॒ऽजि॒ह्वा: । धू॒म॒ऽशि॒खा: । जय॑न्ती: । य॒न्तु॒ । सेन॑या ॥११.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रब्लीनो मृदितः शयां हतोऽमित्रो न्यर्बुदे। अग्निजिह्वा धूमशिखा जयन्तीर्यन्तु सेनया ॥
स्वर रहित पद पाठप्रऽब्लीन: । मृदित: । शयाम् । हत: । अमित्र: । निऽअर्बुदे । अग्निऽजिह्वा: । धूमऽशिखा: । जयन्ती: । यन्तु । सेनया ॥११.१९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 9; मन्त्र » 19
भाषार्थ -
(न्यर्बुदे) हे नितरां शत्रुघातक सेनाधीश! (अमित्रः) शत्रुगण (प्रब्लीनः) घिरा हुआा, (मृदितः) कुचला हुआ, और (हतः) मरा हुआ (शयाम्) भूमि पर सो जाय। (अग्निजिह्वाः) अग्नियों की ज्वालाओं वाले इषु, (धूमशिखाः) तथा धूएं की शिखाओं वाले इषु, (जयन्तीः) विजय पाते हुए, (सेनया) हमारी सेना के साथ (यन्तु) युद्ध भूमि में चलें।
टिप्पणी -
[प्रब्लीनः = प्र + ब्ली (वरणे, क्र्यादि)। अग्निजिह्वाः, ध्रूमशिखा ="धू॒मम॒ग्निं प॑रा॒दृश्या॒ऽमित्रा॑ हृ॒त्स्वा द॑धतां भ॒यम् ॥” अथर्व० (८/८/२) अर्थात् धूम और अग्नि को दूर से देख कर शत्रु, हृदयों में भय धारण करें। तथा "धूमाक्षी [सेना] अथर्व (११।१०।७), अर्थात् धूम द्वारा आवृत आंखों वाली शत्रु सेना। अग्निजिह्वाः= अग्नेजिह्वाः याभ्यः ता इषवः। अग्नि को "सप्तजिह्व२" कहा है, (मुण्डक उप. मुण्डक १, खण्ड २, सन्दर्भ ४)। धूम शिखाः = धूमस्य शिखाः याभ्यः ताः इषवः। यह आग्नेयास्त्र तथा धूमास्त्र है।] [१. "इषु" के सम्बन्ध में कहा है कि "सुपर्ण वस्ते मृगो अस्या दन्तोः" (ऋ० ६।७५।११)। निरुक्त में कहा है कि "मृगमयो अस्या दन्तः" (९।२।१८; खण्ड १४), अर्थात् इषु का दन्त मृगमय है, मृग के सींग द्वारा निर्मित है। इस लिये इषु के अग्रभाग में लगी तीक्ष्ण वस्तु को भी "दन्त" कहा है। २. सात जिह्वाओं सात ज्वालाओं वाली अग्नि।]