अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 18/ मन्त्र 3
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - आर्ची बृहती
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
योऽस्य॒दक्षि॑णः॒ कर्णो॒ऽयं सो अ॒ग्निर्योऽस्य॑ स॒व्यः कर्णो॒ऽयं स पव॑मानः ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒स्य॒ । दक्षि॑ण: । कर्ण॑: । अ॒यम् । स: । अ॒ग्नि: । य: । अ॒स्य॒ । स॒व्य: । कर्ण॑: । अ॒यम् । स: । पव॑मान: ॥१८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
योऽस्यदक्षिणः कर्णोऽयं सो अग्निर्योऽस्य सव्यः कर्णोऽयं स पवमानः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अस्य । दक्षिण: । कर्ण: । अयम् । स: । अग्नि: । य: । अस्य । सव्य: । कर्ण: । अयम् । स: । पवमान: ॥१८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(अस्य) इस परमेश्वर का (यः) जो (अयम्) यह (दक्षिणः) दायां (कर्णः) कान है, (सः) वह है (अग्निः) अग्नि। (अस्य) इस परमेश्वर का (यः) जो (अयम्) यह (सव्यः) बायां (कर्णः) कान है, (सः) वह है (पवमानः) वायु।
टिप्पणी -
[दाहिने कान को अधिक शक्ति शाली माना प्रतीत होता है, इस लिये इसे अग्नि कहा है, और बाएं कान को कम शक्ति वाला माना है, इसलिये इसे पवमान कहा है। "जातकर्मसंस्कार" में भी दाहिने कान में "वेदोऽसि" हे शिशु !तू वेद है, ऐसे कथन का विधान है (संस्कार विधि, महर्षि दयानन्द)। कान का सम्बन्ध शब्द श्रवण के साथ है। पवमान अर्थात् वायु शब्द का माध्यम है। अत: कान को पवमान कहना भी उचित प्रतीत होता है। कान का सम्बन्ध अग्नि के भी साथ है, यह अनुसन्धान के योग्य है। इतना तो समम्क में आ सकता है कि वायु जो वायुरूप में है, वह सौराग्नि के ताप के कारण है, अन्यथा यह भी अतिशैत्य के कारण द्रवरूप हो जाती, और अन्तरिक्ष, वायु से शून्य हो जाता, और शब्द सुनाई न देता। इसलिये सम्भवतः अग्नि का दक्षिण कर्ण के साथ, तथा पवमान (वायु) का सव्यकर्ण के साथ सम्बन्ध, मन्त्र में दर्शाया हो।]