अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 13/ मन्त्र 2
आ॒शुः शिशा॑नो वृष॒भो न भी॒मो घ॑नाघ॒नः क्षोभ॑णश्चर्षनीनाम्। सं॒क्रन्द॑नोऽनिमि॒ष ए॑कवी॒रः श॒तं सेना॑ अजयत्सा॒कमिन्द्रः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒शुः। शिशा॑नः। वृ॒ष॒भः। न। भी॒मः। घ॒ना॒घ॒नः। क्षोभ॑णः। च॒र्ष॒णी॒नाम्। स॒म्ऽक्रन्द॑नः। अ॒नि॒ऽमि॒षः। ए॒क॒ऽवी॒रः। श॒तम्। सेनाः॑। अ॒ज॒य॒त्। सा॒कम्। इन्द्रः॑ ॥१३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
आशुः शिशानो वृषभो न भीमो घनाघनः क्षोभणश्चर्षनीनाम्। संक्रन्दनोऽनिमिष एकवीरः शतं सेना अजयत्साकमिन्द्रः ॥
स्वर रहित पद पाठआशुः। शिशानः। वृषभः। न। भीमः। घनाघनः। क्षोभणः। चर्षणीनाम्। सम्ऽक्रन्दनः। अनिऽमिषः। एकऽवीरः। शतम्। सेनाः। अजयत्। साकम्। इन्द्रः ॥१३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(इन्द्रः) सेनापति (आशुः) शीघ्रकारी, (शिशानः) तीक्ष्ण स्वभाव वाला, (वृषभो न) शक्तिशाली बैल के सदृश (भीमः) भयप्रद, (घनाघनः) गहरी चोट मारनेवाला, (चर्षणीनाम्) शत्रु के प्रजाजन में (क्षोभणः) हलचल मचा देनेवाला, (संक्रन्दनः) शत्रुओं को ललकारनेवाला, और उन्हें रुला देने वाला, (अनिमिषः) सदा जागरूक, (एकवीरः) तथा अद्वितीय वीर होना चाहिए। ऐसा सेनापति (साकम्) एक साथ उमड़ी हुई (शतं सेनाः) सौ सेनाओं पर (अजयत्) विजय पा लेता है।
टिप्पणी -
[शतं सेनाः साकम्= हम लोगों के साथ अनेकों सेनाओं को जीतता है (यजुः० १७.३३), महर्षि दयानन्द। संक्रन्दनः= क्रदि आह्वाने रोदने च।]