अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 50/ मन्त्र 3
रात्रिं॑रात्रि॒मरि॑ष्यन्त॒स्तरे॑म त॒न्वा व॒यम्। ग॑म्भी॒रमप्ल॑वा इव॒ न त॑रेयु॒ररा॑तयः ॥
स्वर सहित पद पाठरात्रि॑म्ऽरात्रिम्। अरि॑ष्यन्तः। तरे॑म। त॒न्वा᳡। व॒यम्। ग॒म्भी॒रम्। अप्ल॑वाःऽइव। न। त॒रे॒युः॒। अरा॑तयः ॥५०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
रात्रिंरात्रिमरिष्यन्तस्तरेम तन्वा वयम्। गम्भीरमप्लवा इव न तरेयुररातयः ॥
स्वर रहित पद पाठरात्रिम्ऽरात्रिम्। अरिष्यन्तः। तरेम। तन्वा। वयम्। गम्भीरम्। अप्लवाःऽइव। न। तरेयुः। अरातयः ॥५०.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 50; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(तन्वा) शरीर से (अरिष्यन्तः) अहिंसित होते हुए (वयम्) हम (रात्रिम् रात्रिम्) प्रत्येक रात्री से (तरेम) पार हो जायें। (अरातयः) अदानी अर्थात् शत्रु (न तरेयुः) न पार हों। (इव) जैसे कि (अप्लवाः) नौकाविहीन व्यक्ति (गम्भीरम्) गहरे समुद्र से पार नहीं हो सकते।
टिप्पणी -
[अरातयः= अ+रा (दाने)+ति। वैदिक सभ्यता में दान की बड़ी महिमा है। अराति शब्द शत्रु अर्थ में प्रयुक्त होता है। अदानी समाज और राष्ट्र के शत्रु गिने गए हैं। वैदिक सभ्यता के अनुसार प्रत्येक गृहस्थी को पञ्चमहायज्ञ करने होते हैं। अतिथियज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ, बलियज्ञ या भूतयज्ञ, तथा ब्रह्मयज्ञ या स्वाध्याययज्ञ। अतिथियज्ञ में अन्नादि द्वारा अतिथियों की सेवा, पितृयज्ञ में जीवित माता-पिता, आचार्य तथा अन्य बुजुर्गों की अन्नादि द्वारा सेवा, देवयज्ञ में अग्निहोत्र द्वारा वायु आदि की शुद्धि से समग्र समाज की सेवा, तथा बलियज्ञ या भूतयज्ञ द्वारा पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि प्राणियों की अन्न द्वारा सेवा करनी होती है। ये सेवाएं दानभावना पर निर्भर हैं। इसीलिये “अराति” को समाज और राष्ट्र का शत्रु कहा है। यह दान धार्मिक दान है, राजनैतिक दृष्टि से दिया गया या बांटा गया धन, दान नहीं।]