अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 55/ मन्त्र 4
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - रायस्पोष प्राप्ति सूक्त
प्रा॒तःप्रा॑तर्गृ॒हप॑तिर्नो अ॒ग्निः सा॒यंसा॑यं सौमन॒सस्य॑ दा॒ता। वसो॑र्वसोर्वसु॒दान॑ ए॒धीन्धा॑नास्त्वा श॒तंहि॑मा ऋधेम ॥
स्वर सहित पद पाठप्रा॒तःऽप्रा॑तः। गृ॒हऽप॑तिः। नः॒। अ॒ग्निः। सा॒यम्ऽसा॑यम्। सौ॒म॒न॒सस्य॑। दा॒ता। वसोः॑ऽवसोः। व॒सु॒ऽदानः॑। ए॒धि॒। इन्धा॑नाः। त्वा॒। श॒तम्ऽहि॑माः। ऋ॒धे॒म॒ ॥५५.४॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रातःप्रातर्गृहपतिर्नो अग्निः सायंसायं सौमनसस्य दाता। वसोर्वसोर्वसुदान एधीन्धानास्त्वा शतंहिमा ऋधेम ॥
स्वर रहित पद पाठप्रातःऽप्रातः। गृहऽपतिः। नः। अग्निः। सायम्ऽसायम्। सौमनसस्य। दाता। वसोःऽवसोः। वसुऽदानः। एधि। इन्धानाः। त्वा। शतम्ऽहिमाः। ऋधेम ॥५५.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 55; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(अग्निः) अग्रणी राजा (प्रातःप्रातः) प्रत्येक प्रातःकाल (नः) हमारे (गृहपतिः) घर आदि सम्पत्तियों का रक्षक हो। और (सायंसायम्) प्रत्येक सायंकाल (सौमनसस्य) मानसिक प्रसन्नता का (दाता) देनेवाला हो। हे अग्रणी राजन्! (वसोः वसोः) हर प्रकार की अभीष्ट वस्तुओं के (वसुदानः) दाता (एधि) आप हूजिए। (त्वा) आपको (इन्धानाः) समुज्ज्वल करते हुए, आपकी कीर्ति को बढ़ाते हुए हम (शतं हिमाः) सौ हेमन्त-ऋतुओं तक (ऋधेम) बढ़ते रहें।
टिप्पणी -
[प्रातःप्रातः, सायंसायम्= अर्थात् प्रति प्रातःकाल से प्रति सांयकाल तक हमारी सम्पत्तियाँ सुरक्षित रहें, और प्रति सायंकाल से प्रति प्रातःकाल तक हम प्रसन्नचित रहकर सौ वर्षों तक बढ़ते रहें। मन्त्र प्रातःकाल के अग्निहोत्र और उपासना का भी सूचक है।] [मन्त्र ३-४ के आधिदैविक तथा आध्यात्मिक अर्थ— (सायंसायम्) प्रतिदिन प्रातः-सायं श्रेष्ठ उपासना को प्राप्त (गृहपतिः) यह गृहपति अर्थात् घर और आत्मा का रक्षक (अग्निः) भौतिक अग्नि, परमेश्वर (सौमनसस्य) आरोग्य आनन्द और (वसोर्वसोः) वसु अर्थात् धन का (दाता) देनेवाला है। इसी से परमेश्वर (वसुदानः) अर्थात् धनदाता प्रसिद्ध है। हे परमेश्वर! आप मेरे राज्य आदि व्यवहार और चित्त में सदा प्रकाशित (एधि) रहिए। यहाँ भौतिक अग्नि भी ग्रहण करने योग्य है। हे परमेश्वर! जैसे पूर्वोक्त प्रकार से (वयम्) हम (त्वा) आपको (इन्धानाः) प्रकाशित करते हुए (तन्वं पुषेम) अपने शरीर से पुष्ट होते हैं, वैसे ही भौतिक अग्नि को भी (इन्धानाः) प्रज्वलित करते हुए परिपुष्ट हों। (प्रातःप्रातर्गृहपतिर्नो०) इस मन्त्र का अर्थ पूर्व मन्त्र के तुल्य जानो। परन्तु इसमें इतना विशेष भी है कि—अग्निहोत्र और ईश्वर की उपासना करते हुए हम लोग (शतहिमाः) सौ हेमन्त ऋतु व्यतीत हो जाने पर्यन्त अर्थात् सौ वर्षों तक धनादि पदार्थों से (ऋधेम) वृद्धि को प्राप्त हों। [ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, पञ्चमहायज्ञ-विषय, महर्षि दयानन्द की व्याख्यानुसार।]