अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 15/ मन्त्र 3
अ॒स्मै भी॒माय॒ नम॑सा॒ सम॑ध्व॒र उषो॒ न शु॑भ्र॒ आ भ॑रा॒ पनी॑यसे। यस्य॒ धाम॒ श्रव॑से॒ नामे॑न्द्रि॒यं ज्योति॒रका॑रि ह॒रितो॒ नाय॑से ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मै । भी॒माय॑ । नम॑सा । सम् । अ॒ध्व॒रे । उष॑: । न । शु॒भ्रे॒ । आ । भ॒र॒ । पनी॑यसे ॥ यस्य॑ । धाम॑ । अव॑से । नाम॑ । इ॒न्द्रि॒यम् । ज्योति॑: । अका॑रि । ह॒रित॑: । न । अय॑से ॥१५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मै भीमाय नमसा समध्वर उषो न शुभ्र आ भरा पनीयसे। यस्य धाम श्रवसे नामेन्द्रियं ज्योतिरकारि हरितो नायसे ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मै । भीमाय । नमसा । सम् । अध्वरे । उष: । न । शुभ्रे । आ । भर । पनीयसे ॥ यस्य । धाम । अवसे । नाम । इन्द्रियम् । ज्योति: । अकारि । हरित: । न । अयसे ॥१५.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 15; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
हे उपासक! (अध्वरे) हिंसारहित उपासना-यज्ञ में, तू (भीमाय) कठोर न्याय की दृष्टि से भयानक, परन्तु (पनीयसे) न्यायवज्र के हितकर और रमणीय होने के कारण स्तुति-योग्य (अस्मै) इस परमेश्वर के प्रति, (नमसा) नमस्कारों द्वारा (सम्) सम्यक्रूप में (आ भर) भक्तिरस समर्पित कर। (न) जैसे कि (उषाः) उषा (शुभ्रे) दिन के शुभ्र हो जाने पर सूर्य के निमित्त आत्मसमर्पण कर देती है। (नाम) सबको नमानेवाला (यस्य) जिस परमेश्वर का (इन्द्रियं धाम) परमेश्वरीय निज तेज (श्रवसे) श्रवण योग्य, विश्रुत है। उसने हम उपासकों में (ज्योतिः) एक दिव्य ज्योति (अकारि) प्रकट कर दी है। (न) जैसे कि (हरितः) अन्धकार का हरण करनेवाली सूर्यकिरणें (अयसे) आते समय (ज्योतिः) उषारूपी ज्योति प्रकट कर देती हैं।
टिप्पणी -
[शुभ्रे=उषा सूर्य से प्रथम आती है, और सूर्य पीछे आता है। जब सूर्य आ गया तब उषा मिट गई। मानो उषा ने सूर्य के प्रति आत्मसमर्पण कर दिया। जब तक आकाश लाल रहता है, तब तक उषा रहती है। सूर्य के आ जाने पर जब दिन शुभ्र हो जाता है, तब उषा अपने स्वरूप से मिट जाती है। मानो उसने सूर्य के प्रति आत्मसमर्पण कर दिया है।]