अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 71/ मन्त्र 4
ए॒वा ह्य॑स्य सू॒नृता॑ विर॒प्शी गोम॑ती म॒ही। प॒क्वा शाखा॒ न दा॒शुषे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । हि । अ॒स्य॒ । सू॒नृता॑ । वि॒ऽर॒प्शी । गोऽम॑ती । म॒ही ॥ प॒क्वा । शाखा॑ । न । दा॒शुषे॑ ॥७१.४॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा ह्यस्य सूनृता विरप्शी गोमती मही। पक्वा शाखा न दाशुषे ॥
स्वर रहित पद पाठएव । हि । अस्य । सूनृता । विऽरप्शी । गोऽमती । मही ॥ पक्वा । शाखा । न । दाशुषे ॥७१.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 71; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(एव=एवम्) इसी प्रकार की [पूर्व मन्त्र ३] (अस्य) इस परमेश्वर की वेदवाणी है, जो कि (हि) निश्चय से (सूनृता) प्रिय और सत्यरूपा है, (विरप्शी) जो विविध पदार्थों का व्यक्त वर्णन करती है, (गोमती) ज्ञानमयी किरणों से सम्पन्न, और (मही) महावाणी है। वह वेदवाणी (दाशुषे) ब्रह्मदान करनेवाले के लिए (पक्वा शाखा न) पके-फलोंवाली शाखा के समान फलदायिनी है।
टिप्पणी -
[विरप्शी=वि+रप् (व्यक्तायां वाचि)+अश् (व्याप्तौ), अकारलोपः छान्दसः।]