Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
तं वो॑ द॒स्ममृ॑ती॒षहं वसो॑र्मन्दा॒नमन्ध॑सः। अ॒भि व॒त्सं न स्वस॑रेषु धे॒नव॒ इन्द्रं॑ गी॒र्भिर्न॑वामहे ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । व॒: । द॒स्मम् । ऋ॒ति॒ऽसह॑म् । वसो॑: । म॒न्दा॒नम् । अन्ध॑स: ॥ अ॒भि । व॒त्सम् । न । स्वस॑रेषु । धे॒नव॑: । इन्द्र॑म् । गी॒ऽभि: । न॒वा॒म॒हे॒ ॥९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
तं वो दस्ममृतीषहं वसोर्मन्दानमन्धसः। अभि वत्सं न स्वसरेषु धेनव इन्द्रं गीर्भिर्नवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । व: । दस्मम् । ऋतिऽसहम् । वसो: । मन्दानम् । अन्धस: ॥ अभि । वत्सम् । न । स्वसरेषु । धेनव: । इन्द्रम् । गीऽभि: । नवामहे ॥९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
हे उपासको! (वः) तुम्हारे लिए, (दस्मम्) दुःखों का क्षय करनेवाले, (ऋतीषहम्) आर्तियों अर्थात् पीड़ाओं और क्लेशों का पराभव करनेवाले, (वसोः) सम्पत्तियों तथा (अन्धसः) अन्नों से (मन्दानम्) तुम्हें तृप्त और प्रसन्न करनेवाले, (तम् इन्द्रम्) उस परमेश्वर के (अभि) प्रति (स्वसरेषु) प्रतिदिन (गीर्भिः) वेदवाणियों द्वारा (नवामहे) हम स्तुतिवचन उच्चारण करते हैं; (न) जैसे कि (वत्सम्) अपने-अपने बछड़े के प्रति प्रतिदिन (धेनवः) दूधभरी गौंए प्रीतिपूर्वक हम्भारती हैं।
टिप्पणी -
[अथवा (वः दस्मम्) तुम्हारे अज्ञान का क्षय करनेवाले।]