अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 17/ मन्त्र 3
सूक्त - शुक्रः
देवता - अपामार्गो वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त
या श॒शाप॒ शप॑नेन॒ याघं मूर॑माद॒धे। या रस॑स्य॒ हर॑णाय जा॒तमा॑रे॒भे तो॒कम॑त्तु॒ सा ॥
स्वर सहित पद पाठया । श॒शाप॑ । शप॑नेन । या । अ॒घम् । मूर॑म् । आ॒ऽद॒धे ।या । रस॑स्य । हर॑णाय । जा॒तम् । आ॒ऽरे॒भे । तो॒कम् । अ॒त्तु॒ । सा ॥१७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
या शशाप शपनेन याघं मूरमादधे। या रसस्य हरणाय जातमारेभे तोकमत्तु सा ॥
स्वर रहित पद पाठया । शशाप । शपनेन । या । अघम् । मूरम् । आऽदधे ।या । रसस्य । हरणाय । जातम् । आऽरेभे । तोकम् । अत्तु । सा ॥१७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(यः) जिस राक्षस-स्वभाववाली स्त्री ने (शपनेन) शाप द्वारा (शशाप) शाप दिया है, (या) तथा जिसने (मूरम्) मूर्च्छोत्पादक कर्मरूपी (अधम्) पाप को (आदधे) धारण किया है, या अवलम्बित किया है, (या) जिसने कि (रसस्य हरणाय) रक्तादिरस के हरण करनेवाले के लिए (जातम्) उत्पन्न हमारे पुत्र को (आरेभे) बलात्कार से हथिया लिया है, (सा) वह (तोकम्) निज पुत्र को (अत्तु) खाये।
टिप्पणी -
[मन्त्र में शाप के स्वरूप को दर्शाया है शपथ को नहीं। मन्त्र में दो शापों का वर्णन हुआ है ‘शशाप’ पद द्वारा तथा ‘तोकम्, अत्तु सा’ द्वारा। [आरेभे आलेभे, रलयोरभेदः। ये दोनों शाप गाली के रूप में हैं।]