अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 25/ मन्त्र 6
सूक्त - मृगारः
देवता - वायुः, सविता
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
प्र सु॑म॒तिं स॑वितर्वाय ऊ॒तये॒ मह॑स्वन्तं मत्स॒रं मा॑दयाथः। अ॒र्वाग्वा॒मस्य॑ प्र॒वतो॒ नि य॑च्छतं॒ तौ नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । सु॒ऽम॒तिम् । स॒वि॒त॒: । वा॒यो॒ इति॑ । ऊ॒तये॑ । मह॑स्वन्तम् । म॒त्स॒रम् । मा॒द॒या॒थ॒: ।अ॒र्वाक् । वा॒मस्य॑ । प्र॒ऽवत॑: । नि । य॒च्छ॒त॒म् । तौ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२५.६॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सुमतिं सवितर्वाय ऊतये महस्वन्तं मत्सरं मादयाथः। अर्वाग्वामस्य प्रवतो नि यच्छतं तौ नो मुञ्चतमंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । सुऽमतिम् । सवित: । वायो इति । ऊतये । महस्वन्तम् । मत्सरम् । मादयाथ: ।अर्वाक् । वामस्य । प्रऽवत: । नि । यच्छतम् । तौ । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२५.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 25; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(सवित: वायो) हे सविता! हे वायु! (ऊतये) रक्षा के लिए (सुमतिम्) उत्तम मति (प्र "यच्छतम्") प्रदान करो, तथा (महस्वन्तम्) ज्ञानदीप्ति प्रदान करनेवाले (मत्सरम्) तृप्तिकारक सोम [का प्रदान करके] (मादयाथः) तुम हमें हर्ष प्रदान करो, अथवा तृप्त करो। (वामस्य) वननीय तथा (प्रवतः) प्रकृष्ट धन का प्रवाह (अर्वाक्) हमारी ओर (नि यच्छतम्) नितरां प्रदान करो, (तौ) वे तुम दोनों (न:) हमें (अंहसः) पापजन्य कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ाएँ।
टिप्पणी -
[सुमति की प्राप्ति हो जाने से पाप-कर्म नहीं होते, और पाप करने से छुटकारा हो जाता है। मत्सर है सोम, जोकि तृप्ति करता है न कि मद। यंथा "मत्सरः सोमो मदन्तेस्तृप्तिकर्मणः" (निरुक्त २।२।५), गौः पद की व्याख्या में। शुद्ध वायु के सेवन, तथा सचिता द्वारा सुप्रकाशित गृहों में निवास से मन प्रसन्न रहता और सुमति प्राप्त होती है। सोम है वनस्पति; वनस्पतियाँ वायु से भोजन, तथा सविता द्वारा प्रकाश-ताप और जल प्राप्त कर बढ़ती है।]