अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 26/ मन्त्र 3
सूक्त - मृगारः
देवता - द्यावापृथिवी
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
अ॑सन्ता॒पे सु॒तप॑सौ हुवे॒ऽहमु॒र्वी ग॑म्भी॒रे क॒विभि॑र्नम॒स्ये॑। द्यावा॑पृथिवी॒ भव॑तं मे स्यो॒ने ते नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒सं॒ता॒पे इत्य॑स॒म्ऽता॒पे । सु॒ऽतप॑सौ । हु॒वे॒ । अ॒हम् । उ॒र्वी इति॑ । ग॒म्भी॒रे इति॑ । क॒विऽभि॑: । न॒म॒स्ये॒३॑ इति॑ । द्यावा॑पृथिवी॒ इति॑ । भव॑तम् । मे॒ । स्यो॒ने इति॑ । ते इति॑ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
असन्तापे सुतपसौ हुवेऽहमुर्वी गम्भीरे कविभिर्नमस्ये। द्यावापृथिवी भवतं मे स्योने ते नो मुञ्चतमंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठअसंतापे इत्यसम्ऽतापे । सुऽतपसौ । हुवे । अहम् । उर्वी इति । गम्भीरे इति । कविऽभि: । नमस्ये३ इति । द्यावापृथिवी इति । भवतम् । मे । स्योने इति । ते इति । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२६.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 26; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(असन्तापे) [क्षुधा तथा पिपासा-जन्य] सन्ताप से रहित करने वाले, (सुतपसौ) उत्तम तापप्रद, तथा (उर्वी) विस्तारयुक्त, (गम्भीरे) समुद्रवत् गम्भीर या दुर्ज्ञेय, (कविभिः) कवियों द्वारा (नमस्ये) नमस्कारयोग्य, (द्यावापृथिवी) द्यौ और पृथिवी का, (अहम्) मैं, (हुवे) आह्वान करता हूँ। (द्यावापृथिवी भवतं में सोने) द्यौ और पृथिवी मेरे लिए सुख रूप हों, (ते) वे तुम दोनों (न:) हमें (अंहसः) पापजन्य कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ाएँ।
टिप्पणी -
[नमस्ये= कवि, जड़ तत्त्वों को भी भावनावश होकर, उन्हें नमस्कार करते हैं, द्यावापृथिवी में मातृ तथा पितृ-बुद्धि से प्रेरित होकर; जैसे कि राष्ट्रिय जड़-झंडे को, राष्ट्र का प्रतीक जानकर, राष्ट्रवादी झंडे को नमस्कार करते हैं। अथवा वैदिक दृष्टि में द्यावापृथिवी, सौर जगत् तथा ब्रह्माण्ड सात्मक हैं, अतः इन प्रतीकों द्वारा इनके आत्मभूत परमेश्वर को ही नमस्कार समझना चाहिए। द्यावापृथिवी आदि महान् आत्मा परमेश्वर के शरीरवत् हैं और उसी द्वारा प्रेरित तथा चेष्टावाले हो रहे हैं, जैसेकि जीवित शरीर जीवात्मा द्वारा प्रेरित होता है। तभी कहा है कि "योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम्। ओ३म् खं ब्रह्म" (यजु:० ४०।१७), जो आदित्य में पुरुष है वह ही मैं हूँ, अर्थात् ओ३म्, खम् और ब्रह्म। वैदिक विद्वान् आदित्य में विद्यमान परमेश्वर को ही, तथा द्यावापृथिवी में विद्यमान परमेश्वर को ही नमस्कार करता है, न कि जड़ द्यावापृथिवी आदि को। कविभिः= कवि: मेधाविनाम (निघं० ३।१५)।]