अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 21/ मन्त्र 9
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - वानस्पत्यो दुन्दुभिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुसेनात्रासन सूक्त
ज्या॑घो॒षा दु॑न्दु॒भयो॒ऽभि क्रो॑शन्तु॒ या दिशः॑। सेनाः॒ परा॑जिता य॒तीर॒मित्रा॑णामनीक॒शः ॥
स्वर सहित पद पाठज्या॒ऽघो॒षा: । दु॒न्दु॒भय॑: । अ॒भि । क्रो॒श॒न्तु॒ । या: । दिश॑: । सेना॑:। परा॑ऽजिता: । य॒ती: । अ॒मित्रा॑णाम् । अ॒नी॒क॒ऽश: ॥२१.९॥
स्वर रहित मन्त्र
ज्याघोषा दुन्दुभयोऽभि क्रोशन्तु या दिशः। सेनाः पराजिता यतीरमित्राणामनीकशः ॥
स्वर रहित पद पाठज्याऽघोषा: । दुन्दुभय: । अभि । क्रोशन्तु । या: । दिश: । सेना:। पराऽजिता: । यती: । अमित्राणाम् । अनीकऽश: ॥२१.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 21; मन्त्र » 9
भाषार्थ -
(याः दिशः) जो दिशाएँ हैं उन्हें, (ज्याघोषाः) [हमारे] धनुषों की डोरियाँ और (दुन्दुभयः) दुन्दुभियाँ१ (अभि क्रोशन्तु) गुंजा दें। (अमित्राणाम् ) शत्रुओं की (सेना:) सेनाएँ (अनीकश:) श्रेणी-श्रेणी में विभक्त हुई (पराजिताः यती:) पराजित होती हुई हों।
टिप्पणी -
[दुन्दुभयः =प्रथम वार बहुवचन में।१ सेनाः =शत्रुओं की नाना सेनाएँ। अनीकश: = पदातियों, अश्वारोहियों, रथियों, हस्तिपकों तथा खाद्य सामग्री पहुँचानेवालों की भिन्न-भिन्न श्रेणियाँ।] [१. "दुन्दुभयः" में वहुवचन यह सूचित करता है कि जो राष्ट्र-संघ, किसी समान-शत्रु के साथ युद्ध करे, वह अपनी-अपनी सेना के साथ अपनी-अपनी जाति की विशिष्ट दुन्दुभि भी भेजें, जोकि स्वजातीय सैनिकों में जोश पैदा कर सके।]