अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 31/ मन्त्र 12
सूक्त - शुक्रः
देवता - कृत्याप्रतिहरणम्
छन्दः - पथ्याबृहती
सूक्तम् - कृत्यापरिहरण सूक्त
कृ॑त्या॒कृतं वल॒गिनं॑ मू॒लिनं॑ शपथे॒य्य॑म्। इन्द्र॒स्तं ह॑न्तु मह॒ता व॒धेना॒ग्निर्वि॑ध्यत्व॒स्तया॑ ॥
स्वर सहित पद पाठकृ॒त्या॒ऽकृत॑म् । व॒ल॒गिन॑म् । मू॒लिन॑म् । श॒प॒थे॒य्य᳡म् । इन्द्र॑: । तम् । ह॒न्तु॒ । म॒ह॒ता । व॒धेन॑ । अ॒ग्नि: । वि॒ध्य॒तु॒ । अ॒स्तया॑ ॥३१.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
कृत्याकृतं वलगिनं मूलिनं शपथेय्यम्। इन्द्रस्तं हन्तु महता वधेनाग्निर्विध्यत्वस्तया ॥
स्वर रहित पद पाठकृत्याऽकृतम् । वलगिनम् । मूलिनम् । शपथेय्यम् । इन्द्र: । तम् । हन्तु । महता । वधेन । अग्नि: । विध्यतु । अस्तया ॥३१.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 31; मन्त्र » 12
भाषार्थ -
(कृत्याकृतम् ) हिंस्रक्रिया करनेवाले, (वलगिनम् ) वलयाकार में गति कर आग लगानेवाले विस्फोटकों के स्वामी, (मूलिनम्१) बहुमूल्य सम्पत्ति वाले, (शपथेय्यम् ) शपथ२ लेने योग्य [कि भविष्य में मैं हिंस्रक्रिया नहीं करूँगा] शत्रु राजा को (इन्द्रः) सम्राट् (महता वधेन) महावधकारी आयुध द्वारा (विध्यतु) बींधे, अथवा (अग्निः) अग्रणी प्रधानमन्त्री (अस्तया 'इष्वा') शत्रु पर फेंकी गई इषु द्वारा बींधे।
टिप्पणी -
[हिंस्रक्रिया करनेवाले, शक्तिशाली तथा शपथ लेनेवाले शत्रु राजा को सम्राट या प्रधानमन्त्री मृत्युदण्ड दें-यह उग्र दण्डनीति वेदानुमोदित है। राजा का वध, सम्राट् या प्रधानमन्त्री ही करे और कोई नहीं।] [१. मूलिनम् = अथवा "मूल सम्पत्ति है" अचल सम्पत्ति, स्थिर सम्पत्ति, तथा भूमि, मिलें आदि। तथा 'अमूला सम्पत्ति' (मन्त्र ४) है भूमि तथा मिलों से उत्पादित सम्पत्ति। २. "यदि पुनः युद्ध करूं तो अमुक दुश्मन को प्राप्त होऊँ"-युद्ध शपथ है, अभिप्राप इससे पृथक् है। अभिप्राय यह है कि आराधी राजा यदि शपथ ले ले तो इसे क्षमा कर दिया जाए परन्तु वह यदि अभिमान में आकर शपथ नहीं लेता तो उसे वध दण्ड दिया है।]