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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 118/ मन्त्र 1
यद्धस्ता॑भ्यां चकृ॒म किल्बि॑षाण्य॒क्षाणां॑ ग॒त्नुमु॑प॒लिप्स॑मानाः। उ॑ग्रंप॒श्ये उ॑ग्र॒जितौ॒ तद॒द्याप्स॒रसा॒वनु॑ दत्तामृ॒णं नः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । हस्ता॑भ्याम् । च॒कृ॒म । किल्बि॑षाणि । अ॒क्षाणा॑म् । ग॒त्नुम् । उ॒प॒ऽलिप्स॑माना: । उ॒ग्रं॒प॒श्ये । इत्यु॑ग्र॒म्ऽप॒श्ये । उ॒ग्र॒ऽजितौ॑ । तत् । अ॒द्य । अ॒प्स॒रसौ॑ । अनु॑ । द॒त्ता॒म् । ऋ॒णम् । न॒: ॥११८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्धस्ताभ्यां चकृम किल्बिषाण्यक्षाणां गत्नुमुपलिप्समानाः। उग्रंपश्ये उग्रजितौ तदद्याप्सरसावनु दत्तामृणं नः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । हस्ताभ्याम् । चकृम । किल्बिषाणि । अक्षाणाम् । गत्नुम् । उपऽलिप्समाना: । उग्रंपश्ये । इत्युग्रम्ऽपश्ये । उग्रऽजितौ । तत् । अद्य । अप्सरसौ । अनु । दत्ताम् । ऋणम् । न: ॥११८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 118; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(अक्षाणाम्) इन्द्रियों के (गत्नुम्) गन्तव्य, प्रापणीय विषयों की (उपलिप्समानाः) उपलब्धि चाहते हुए, (हस्ताभ्याम्) हाथों द्वारा (यत्१) जो (किल्बिषाणि) पाप (चकृम) हम ने किये हैं, (उग्र पश्ये) उम्र अर्थात् सच्चाई पूर्वक देखने वाली तथा (उग्रजितौ) तथा सच्चाई पूर्वक विजय पाने वाली (अप्सरसौ) रूपवती दो महिलाएं (अद्य) आज अर्थात् प्रतिदिन (नः) हमारे (ऋणम्) ऋण को (अनु) राजकीय नियमानुसार (दत्ताम्) उत्तमर्णों को दें।
टिप्पणी -
[मन्त्र में दो अप्सराओं का वर्णन है। ये हैं दो रूपवती महिलाएं। यथा "अप्स इति रूपनाम, तद्रा भवति रूपवती" (निरुक्त ५।३।१५; उर्वशी पद (४७)। ये दोनों राष्ट्र द्वारा नियुक्त न्यायाधीश हैं। ये दोनों राष्ट्र में हुए "ऋण के आदान और प्रतिदान या प्रत्यादान सम्बन्धी विवादों की निर्णायिकाएं हैं। दोनों मिलकर फैसला करती हैं, दोनों न्यायसभा रूप [Court] हैं। उग्रंपश्ये= प्रथमा विभक्ति द्विवचन का रूप है जो कि "अप्सरसौ" का विशेषण है। इसी प्रकार उप्रजितौ भी "अप्सरसौ" का विशेषण है। ऋत अर्थात् सत्य है उग्र। यथा “ऋतमुग्रम्" (अथर्व १२।१।१)। ऋतम् सत्यनाम (निघं० ३।१०)। ये दो महिलाएं ऋण के दाता और ग्रहीता में ऋण सम्बन्धी विवाद में सत्य को देख कर फैसला कर देती हैं, अतः सत्य के कारण इन की सदा विजय होती है, इनके दिये फैसले को अन्तिम फैसला माना जाता है, और कहीं अपील नहीं होती। “अनुदत्तामृणम्" का यह अभिप्राय है कि फैसले की ऋणराशि को अदालत में जमा कर दिया जाता है और न्यायाधीश स्वयं ऋणराशि उत्तमर्ण को दे देते हैं। उत्तम है ऋणदाता और अधमर्ण है ऋण ग्रहीता। मन्त्र में विषयोपलब्धि पाप कर्म, और धन का परस्पर सम्बन्ध दर्शाया है। असंयमी व्यक्ति ऋण द्वारा प्राप्त धन का भी, पापकर्म में प्रयोग कर देता है।] [१. यत्= यानि किल्विषाणि।]