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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 125/ मन्त्र 2
दि॒वस्पृ॑थि॒व्याः पर्योज॒ उद्भृ॑तं॒ वन॒स्पति॑भ्यः॒ पर्याभृ॑तं॒ सहः॑। अ॒पामो॒ज्मानं॒ परि॒ गोभि॒रावृ॑तमिन्द्रस्य॒ वज्रं॑ हविषा॒ रथं॑ यज ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒व: । पृ॒थि॒व्या:। परि॑ । ओज॑: । उत्ऽभृ॑तम् । वन॒स्पति॑ऽभ्य: । परि॑ । आऽभृ॑तम् । सह॑: । अ॒पाम् । ओ॒ज्मान॑म् । परि॑ । गोभि॑: । आऽवृ॑तम् । इन्द्र॑स्य । वज्र॑म् । ह॒विषा॑ । रथ॑म् । य॒ज॒ ॥१२५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवस्पृथिव्याः पर्योज उद्भृतं वनस्पतिभ्यः पर्याभृतं सहः। अपामोज्मानं परि गोभिरावृतमिन्द्रस्य वज्रं हविषा रथं यज ॥
स्वर रहित पद पाठदिव: । पृथिव्या:। परि । ओज: । उत्ऽभृतम् । वनस्पतिऽभ्य: । परि । आऽभृतम् । सह: । अपाम् । ओज्मानम् । परि । गोभि: । आऽवृतम् । इन्द्रस्य । वज्रम् । हविषा । रथम् । यज ॥१२५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 125; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(दिवस्पृथिव्याः) द्युलोक और पृथिवी से (उद्भृतम्) उद्धृत (ओजः) ओजस् रूप, (वनस्पतिभ्यः) वनस्पतियों से (आभृतम्) आहृत (सहः) बल रूप (परि = पञ्चम्यर्थानुवादी); (अपाम् ओज्मानम) जल के ओजस् रूप, (गोभिः) गोचर्मों द्वारा (परि) सब ओर (आवृतम) आच्छादित (इन्द्रस्य) विद्युत् के (वज्रम्) वज्ररूप (रथम्) सैन्यरथ को (हविषा) आत्माहुति द्वारा (यज) सुसंगत कर।
टिप्पणी -
[गोभिः = गोचर्मभिः। यथा “अथाप्यस्यां ताद्धितेन कृत्स्नवन्निगमा भवन्ति, "गोभिः श्रीणीत मत्सरमिति" पयसः (२/२/५ निरुक्त), अर्थात् गोसम्बन्धी मन्त्रों में तद्धितार्थ अर्थात् भव, अवयव, विकार में, पूर्ण गोपद का प्रयोग होता है। यथा “गोभिः श्रीणीत मत्सरम" में गोभिः का अभिप्राय है पयः अर्थात् दुग्ध। अर्थात् दूध के द्वारा सोम औषधि को पकाओ। मन्त्र में रथ के निर्माण का वर्णन है। रथ का निर्माण पञ्चभूतों की सहायता से होता है। वनस्पति का बीज पृथिवी में अङ्कुरित होता, द्युलोकस्थ सूर्य के ताप प्रकाश द्वारा, और अन्तरिक्ष के वर्षाजल द्वारा सींचा जाकर बढ़ता, और वृक्षरूप होकर वृक्ष के काष्ठ से निर्मित होता है। चलने में अधिक वेग वाला होने से, और शत्रुओं के विनाश में सहायक होने से रथ वैद्युतवज्ररूप है। यज = देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु में सङ्गति करण अभीष्ट है। वनस्पतियां किन तत्वों से पैदा होती तथा बढ़ती है, इसका भी परिज्ञान मन्त्र द्वारा होता है।]