अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 132/ मन्त्र 1
यं दे॒वाः स्म॒रमसि॑ञ्चन्न॒प्स्वन्तः शोशु॑चानं स॒हाध्या। तं ते॑ तपामि॒ वरु॑णस्य॒ धर्म॑णा ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । दे॒वा: । स्म॒रम् । असि॑ञ्चन् । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । शोशु॑चानम् । स॒ह । आ॒ध्या । तम् । ते॒ । त॒पा॒मि॒ । वरु॑णस्य । धर्म॑णा ॥१३२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यं देवाः स्मरमसिञ्चन्नप्स्वन्तः शोशुचानं सहाध्या। तं ते तपामि वरुणस्य धर्मणा ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । देवा: । स्मरम् । असिञ्चन् । अप्ऽसु । अन्त: । शोशुचानम् । सह । आध्या । तम् । ते । तपामि । वरुणस्य । धर्मणा ॥१३२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 132; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(देवाः) मादक१ प्राकृतिक तत्वों ने (यम्, स्मरम्) जिस स्मर को, (आध्या सह) मानसिक चिन्ता के साथ (शोशुचानम्) शोकित करते हुए, (अप्सु अन्तः शारीरिक जलों के भीतर (असिञ्चन्) सींच दिया है (ते, तम्) तेरे उस स्मर को (वरुणस्य) जलाधिपति वरुण के (धर्मणा) धर्म द्वारा (तपामि) में पत्नी सन्तापकारी करती हूं।
टिप्पणी -
[अप्सु अन्तः= जलों के भीतर। यह जल साधारण जल नहीं अपितु शारीरिक जल है,–रक्त रूपी जल। इन जलों में स्मर और मानसिक चिन्ताओं का निवास है, जो कि स्त्री-पुरुष को शोक युक्त करता है। पत्नी निज विरह के द्वारा पति को और अधिक स्मर-संतापयुक्त करती है, ताकि वह निज संताप के शासन के लिये पत्नी के पास लौट आए। वरुण रक्त रूपी जल का भी अधिपति है, और विरह में इस जल द्वारा संतापित करना उसका स्वाभाविक धर्म है। मन्त्र में कोई अश्लील भावना नहीं। ये तो गृहस्थ धर्म की अङ्गिभूत स्वाभाविक भावनाएं हैं।] [१. देवाः= दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोद "मद" स्वप्नकान्तितिषु (दिवादिः)। ये देव शक्तियां है। जिसका प्रतिपादन "क्रीड़ा" आदि द्वारा हुआ है। "अप्सु अन्तः" द्वारा शारीरिक जल भी अभिप्रेत हो सकते हैं। यथा– को अस्मिन्नापो व्यदधात्विषूवृतः पुरूवृतः सिन्धुसृत्याय जाताः। तीव्रा अरुणा लोहिनीस्ताम्रधूम्रा ऊर्ध्वा अवाचीः पुरुषे तिरश्चीः॥ (अथर्व० १०।२।११) मन्त्र में पुरुषे आपः, तीव्राः, करुणाः, लोहिनीः, तामधूम्राः आदि पद शारीरिक रक्तरूपी जल के सूचक है। मन्त्र की विशेष व्याख्या के लिये मत्कृत अथर्ववेद भाष्य देखो (अथर्व० १०।२।११)।]