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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 2/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - सोमः, वनस्पतिः
छन्दः - परोष्णिक्
सूक्तम् - जेताइन्द्र सूक्त
इन्द्रा॑य॒ सोम॑मृत्विजः सु॒नोता च॑ धावत। स्तो॒तुर्यो वचः॑ शृ॒णव॒द्धवं॑ च मे ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑य । सोम॑म् । ऋ॒त्वि॒ज॒: । सु॒नोत॑ । आ । च॒ । धा॒व॒त॒ । स्तो॒तु: । य: । वच॑: । शृ॒णव॑त् । हव॑म् । च॒ । मे॒ ॥२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राय सोममृत्विजः सुनोता च धावत। स्तोतुर्यो वचः शृणवद्धवं च मे ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्राय । सोमम् । ऋत्विज: । सुनोत । आ । च । धावत । स्तोतु: । य: । वच: । शृणवत् । हवम् । च । मे ॥२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(ऋत्विजः) ऋतु-ऋतु के अनुकूल भक्तियज्ञ करने वालों ! (इन्द्राय) परमैश्वर्यवान् परमेश्वर के लिये (सोमम्) भक्तिरस को (सुनोत) पैदा करो, (च) और (आधावत) उसे पूर्णरूप में शुद्ध करो, (यः) जो इन्द्र कि (स्तोतुः) प्रत्येक स्तुतिकर्त्ता के (वच:) स्तुतिवचन को, (च) और ( मे ) मेरे (हवम्) आह्वान को (शृणवत्) सुने या सुनता है।
टिप्पणी -
[ऋत्विजः=ऋतु+यज्ञ । प्रत्येक ऋतु में परमेश्वर के भिन्न-भिन्न गुण-कर्म अर्थात् स्वरूप प्रकट होते हैं तदनुकूल या तदनुरूप ही उस की स्तुति या भक्तियज्ञ करने चाहिये। सोमम् =अथर्ववेद में कहा है कि– सोमं मन्यते पपिवान् यत्संपिषन्त्योषधिम् । सोमं यं ब्रह्माणो विदुर्न तस्याश्नाति पार्थिवः॥१४॥१॥३॥। सोम को मानता है कि मैंने पी लिया, जब कि ओषधि को पीसते हैं। जिसे कि ब्रह्मवेद [अथर्ववेद] के ज्ञाता, या ब्रह्मज्ञ, सोम जानते हैं उसका प्राशन पृथिवी-भोगी नहीं करता। [इससे प्रतीत होता है कि मन्त्र में "सोम" द्वारा सोम ओषधि और उसका रस ही नहीं, अपितु प्रकरणानुसार सोम के अन्यार्थ भी होते हैं। पृथिवी भोगी= पार्थिव भोगों में आसक्त पुरुष। काण्ड ६, सूक्त १ भक्तिगानपरक है, अतः सूक्त २ में भी भक्ति का सम्बन्ध अभीष्ट प्रतीत होता है। अतः सोमपान का अर्थ "भक्तिरसपान" किया गया है।