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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 44/ मन्त्र 3
सूक्त - विश्वामित्र
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - त्रिपदा महाबृहती
सूक्तम् - रोगनाशन सूक्त
रु॒द्रस्य॒ मूत्र॑मस्य॒मृत॑स्य॒ नाभिः॑। वि॑षाण॒का नाम॒ वा अ॑सि पितॄ॒णां मूला॒दुत्थि॑ता वातीकृत॒नाश॑नी ॥
स्वर सहित पद पाठरु॒द्रस्य॑ । मूत्र॑म् । अ॒सि॒ । अ॒मृत॑स्य । नाभि॑: । वि॒ऽसा॒न॒का । नाम॑ । वै । अ॒सि॒ । पि॒तृ॒णाम् । मूला॑त् । उत्थि॑ता । वा॒ती॒कृ॒त॒ऽनाश॑नी ॥४४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
रुद्रस्य मूत्रमस्यमृतस्य नाभिः। विषाणका नाम वा असि पितॄणां मूलादुत्थिता वातीकृतनाशनी ॥
स्वर रहित पद पाठरुद्रस्य । मूत्रम् । असि । अमृतस्य । नाभि: । विऽसानका । नाम । वै । असि । पितृणाम् । मूलात् । उत्थिता । वातीकृतऽनाशनी ॥४४.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 44; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(रुद्रस्य) अन्तरिक्षस्थ विद्युत् का (मूत्रम्) मूत्ररूप (असि) तू है [हे वसिष्ठ !] (अमृतस्य) अमृतत्व अर्थात् चिरकाल तक जीवन का तू (नाभिः) बन्धक है, स्थापक है। (विषाणका१) रोग को शरीर से विभक्त करने वाली ओषधि (नाम वै) नाम वाली निश्चय से (असि) तू है,(पितृणाम्) ऋतुओं की (मूलात्) मूलभूत२ ऋतु से (उत्थिता) तु उत्पन्न हुई है, (वातीकृतनाशनी) प्रकुपित वात से किये गये रोग का नाश करने वाली है।
टिप्पणी -
[मूत्रम् जलम् (सायण)। नाभि: = बन्धकं स्थापकम् ( सायण), नह [णह] बन्धने (दिवादिः)। विषाणका= विशेषेण रोगनिवर्तनस्य संभक्त्री (सायण)। जल ओषधि है, ओषधि पद स्त्रोलिङ्गी है। अतः मन्त्र में स्त्रीलिङ्गी प्रयोग हुए हैं, जो कि जल का ही कथन करते हैं।] विशेष कथन– वैदिक साहित्य में "पितरः" का प्रयोग ऋतुओं के लिये भी हुआ है। पितरों अर्थात् ऋतुओं की मूल ऋतु अभिप्रेत है "वर्षा ऋतु"। वर्षा ऋतु के सम्बन्ध से संवत्सर को वर्ष कहते हैं। वसिष्ठ अर्थात् जल को मन्त्र में वर्षा-ऋतु से उत्थित कहा है। वर्षा से प्राप्त किया जल शुद्ध पवित्र होता है, उस में भौमतत्त्व मिले नहीं होते। इसलिये वह जल चिकित्सा के लिये उत्तम होता है, और मन्त्रोक्त वातरोग के विनाश के लिये उपयुक्त है। पृथिवी की एक विशिष्ट गति के कारण जिसे कि "Precession of equinoxs"३ कहते हैं। समय-समय पर भिन्न-भिन्न ऋतुओं से संवत्सर-काल प्रारम्भ होता रहता है, यह ज्योतिःशास्त्र का सिद्धान्त है लगभग २४ हजार वर्षों में ऋतुचक्र पुनः पूर्वस्थिति में आ जाता है, अर्थात् ऋतुचक्र या संवत्सर जिस ऋतु से प्रारम्भ हुआ था, उस ऋतु से पुनः प्रारम्भ हो जाता है।] [१. वि + षण संभक्तौ (भ्वादिः)। २. जिस ऋतु से संवत्सर या वर्ष का प्रारम्भ हुआ, वह ऋतु मूलरूप है। ३. The shifting of the equinoctial points from east to west अर्थात् जिन स्थानों पर सूर्य के आगमन पर दिन-रात बराबर होते हैं, उन स्थानों का पूर्व से पश्चिम की ओर बदल जाना। तथा- A slow backward motion of the equinoctial points along the ecliptic, caused by the greater attraction of the sun and moon on the excess of matter of the equator such, that the times at which the sun crosses the equator comes at shorter intervals than they should otherwise do. रविमार्ग में उन दो स्थानों का, जहां कि दिन-रात बराबर हो जाते हैं, [मार्च २१ तथा सितम्बर २३ को] दिन और रात के स्थानों का पीछे की ओर शनैः-शनैः खिसकते जाना, जो कि सूर्य और चन्द्रमा द्वारा, भूमध्य रेखा पर अधिक द्रव्य के होने पर होता है, जिस से भूमध्य रेखा पर सूर्य के आने का समय पूर्वापेक्षया कम हो जाता है।]