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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 95/ मन्त्र 3
सूक्त - भृग्वङ्गिरा
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कुष्ठौषधि सूक्त
गर्भो॑ अ॒स्योष॑धीनां॒ गर्भो॑ हि॒मव॑तामु॒त। गर्भो॒ विश्व॑स्य भू॒तस्ये॒मं मे॑ अग॒दं कृ॑धि ॥
स्वर सहित पद पाठगर्भ॑: । अ॒सि॒ । ओष॑धीनाम् । गर्भ॑: । हि॒मऽव॑ताम् । उ॒त । गर्भ॑: । विश्व॑स्य । भू॒तस्य॑ । इ॒मम् । मे॒ । अ॒ग॒दम् । कृ॒धि॒ ॥९५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
गर्भो अस्योषधीनां गर्भो हिमवतामुत। गर्भो विश्वस्य भूतस्येमं मे अगदं कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठगर्भ: । असि । ओषधीनाम् । गर्भ: । हिमऽवताम् । उत । गर्भ: । विश्वस्य । भूतस्य । इमम् । मे । अगदम् । कृधि ॥९५.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 95; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(ओषधीनाम्) ओषधियों का (गर्भः१) गर्भरूप (असि) तू है, (उत) तथा (हिमवताम्) हिम प्रदेशों वाले औषधों का (गर्भः) गर्भरूप है। (विश्वस्य भूतस्य) समग्र प्राणियों का (गर्भः) गर्भरूप है, (मे) मेरे (इमम्) इस रोगी को (अगदम्) रोगरहित (कृधि) तू कर।
टिप्पणी -
[प्रकरण की दृष्टि से कुष्ठ-ओषध का वर्णन प्रतीत होता है।] [१. जैसे गर्भस्थ शिशु, माता के गर्भ से, पोषण तथा गुण ग्रहण करता है, वैसे कुष्ठ में मानो सब औषधों की पूष्टियां तथा गुण विद्यमान हैं।]