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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 94/ मन्त्र 1
ध्रु॒वं ध्रु॒वेण॑ ह॒विषाव॒ सोमं॑ नयामसि। यथा॑ न॒ इन्द्रः॒ केव॑ली॒र्विशः॒ संम॑नस॒स्कर॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठध्रु॒वम् । ध्रु॒वेण॑ । ह॒विषा॑ । अव॑ । सोम॑म् । न॒या॒म॒सि॒ । यथा॑ । न॒: । इन्द्र॑: । केव॑ली: । विश॑: । सम्ऽम॑नस: । कर॑त् ॥९९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ध्रुवं ध्रुवेण हविषाव सोमं नयामसि। यथा न इन्द्रः केवलीर्विशः संमनसस्करत् ॥
स्वर रहित पद पाठध्रुवम् । ध्रुवेण । हविषा । अव । सोमम् । नयामसि । यथा । न: । इन्द्र: । केवली: । विश: । सम्ऽमनस: । करत् ॥९९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 94; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(ध्रुवेण) स्थिर (हविषा) सैनिक हवि द्वारा, (ध्रुवम्) युद्ध में ध्रुवरूप (सोमम्) परकीय-सेनानायक का (अवनयामसि) हम अवपात करते हैं (यथा) ताकि (इन्द्रः) सम्राट् (नः) हम (विशः) प्रजाओं को (केवलीः) शत्रुरहित या पारस्परिक सेवा वाली, (संमनसः) और एक मन वाली (करत्) करे।
टिप्पणी -
[वेदानुसार स्वरक्षार्थ किया युद्ध यज्ञरूप है, और इस युद्धयज्ञ में सैनिक हविरूप हैं। परकीय सेना का सेनाध्यक्ष जब ध्रुव होकर युद्ध लड़ रहा हो, तब आत्मरक्षार्थ युद्ध में ध्रुवरूप में, स्थिररूप में, सैनिक प्रदान करते रहना चाहिये, ताकि परकीय सेनानायक का अधोनयन किया जा सके। सोम= सेनानायक। यथा “इन्द्र आसां नेता बृहस्पतिर्दक्षिणा यज्ञः पुर एतु सोमः। देव सेनानामभिभञ्जतीनां जयन्तीनां मरुतो यत्त्वग्रम्" (यजु० १७।४०)। इस मन्त्र में इन्द्र है सम्राट्; बृहस्पति है बृहती सेना का पति; और सोम है सेनाध्यक्ष जो कि युद्ध-यज्ञ को करता है। केवलीः= केवृ सेवने (भ्वादिः)। अवनयामसि= अव (अबस्तात्) + नी (नयने), अधोनयन]।