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अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 58
यद्वदा॑मि॒ मधु॑म॒त्तद्व॑दामि॒ यदीक्षे॒ तद्व॑नन्ति मा। त्विषी॑मानस्मि जूति॒मानवा॒न्यान्ह॑न्मि॒ दोध॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । वदा॑मि । मधु॑ऽमत् । तत् । व॒दा॒मि॒ । यत् । ईक्षे॑ । तत् । व॒न॒न्ति॒ । मा॒ । त्विषि॑ऽमान् । अ॒स्मि॒ । जू॒ति॒ऽमान् । अव॑ । अ॒न्यान् । ह॒न्मि॒ । दोध॑त: ॥१.५८॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्वदामि मधुमत्तद्वदामि यदीक्षे तद्वनन्ति मा। त्विषीमानस्मि जूतिमानवान्यान्हन्मि दोधतः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । वदामि । मधुऽमत् । तत् । वदामि । यत् । ईक्षे । तत् । वनन्ति । मा । त्विषिऽमान् । अस्मि । जूतिऽमान् । अव । अन्यान् । हन्मि । दोधत: ॥१.५८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 58
विषय - प्रेम, माधुर्य और पराक्रम
शब्दार्थ -
(यद्) जब (वदामि) बोलूं (तत्) तब (मधुमत्) मधु, माधुर्य से युक्त, मीठे वचन ही (वदामि) बोलूं (यद्) जब (ईक्षे) देखूं (तत्) तब (मा) मुझे लोग (वनन्ति) प्रेम की दृष्टि से देखें । मैं (त्विषीमान्) कान्तिमान्, तेजस्वी और (जूतिमान्) वेगवान्, उत्साही (अस्मि) हूँ। (दोधत:) मेरे प्रति क्रोध करनेवाले (अन्यान्) अन्यों को, शत्रुओं को (अवहन्मि) नीचे गिराता हूँ ।
भावार्थ - मन्त्र में निम्न शिक्षाएँ हैं १. हम जब भी बोलें, जो कुछ भी बोलें वह मीठा, मधुर, सत्य, प्रिय एवं हितकर ही हो । २. जो कुछ भी देखें उसे प्रेममयी दृष्टि से देखना चाहिए । ३. जब हमारी वाणी में माधुर्य होगा और हमारी दृष्टि प्रेममयी होगी तब सभी मनुष्य, मनुष्य ही नहीं प्राणिमात्र हमसे प्रेम करेंगे । ४. प्रत्येक व्यक्ति को ऐसा आत्मविश्वास रखना चाहिए कि मैं तेजस्वी हूँ, पराक्रमी, पुरुषार्थी और उत्साही हूँ । ५. जो हमारे प्रति वैर, विरोध, ईर्ष्या, द्वेष एवं क्रोध की भावनाएँ रखते हैं उन्हें हम मार भगाने में समर्थ हों ।
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