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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 48 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 48/ मन्त्र 1
    ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    य॒ज्ञाय॑ज्ञा वो अ॒ग्नये॑ गि॒रागि॑रा च॒ दक्ष॑से। प्रप्र॑ व॒यम॒मृतं॑ जा॒तवे॑दसं प्रि॒यं मि॒त्रं न शं॑सिषम् ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒ज्ञाऽय॑ज्ञा । वः॒ । अ॒ग्नये॑ । गि॒राऽगि॑रा । च॒ । दक्ष॑से । प्रऽप्र॑ । व॒यम् । अ॒मृत॑म् । जा॒तऽवे॑दसम् । प्रि॒यम् । मि॒त्रम् । न । शं॒सि॒ष॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञायज्ञा वो अग्नये गिरागिरा च दक्षसे। प्रप्र वयममृतं जातवेदसं प्रियं मित्रं न शंसिषम् ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञाऽयज्ञा। वः। अग्नये। गिराऽगिरा। च। दक्षसे। प्रऽप्र। वयम्। अमृतम्। जातऽवेदसम्। प्रियम्। मित्रम्। न। शंसिषम् ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 48; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 1

    Bhajan -

     वैदिक मन्त्र
    यज्ञायज्ञा वो अग्नये गिरा गिरा च दक्षसे।प्र प्र वयममृतं जातवेदसं प्रियं मित्रं न शंसिषम्।। ऋ•६.४८.१
                      वैदिक भजन ११०२ वां
                                राग देश
                गायन समय रात्रि का द्वितीय प्रहर
               ‌‌‌‌               ताल अद्धा
    जब से रहस्य जाना यज्ञ का हमने 
    जीवन बना यज्ञमय पावन 
    यूं तो अनजाने में हर अंग है याज्ञिक(२) 
    कर रहे हैं मिलजुल कर संगतिकरण 
    मन- देह, इंद्रियां है अग्नि-अर्पण 
    जब से ........ 
    श्वास लेना, आंख झपकना, रुधिर प्रवाहित होना 
    यह  सब तो छोटे-छोटे नित यज्ञ हैं 
    अंग-प्रत्यंग मिलकर क्रियाओं में भाग लेते 
    यज्ञ द्वारा अभिलक्षित ये अनवद्य हैं
     मन-देह इन्द्रियाँ यज्ञ हेतु भाग लेके (२) 
    कहते हैं इदमग्ने इदन्नमम २) 
    जब से ........... 
    सबसे बड़ा याग विश्व का याग है 
    परमेश्वर का जिसमें एक छत्र राज है 
    इतने बड़े विश्व में गिनती क्या मनुष्य की ?
    मनुष्य का इसमें कितना अल्प भाग है 
    विश्व याग आग में कोई जाने ना जाने (२) 
    नन्ही आहुति का मूल्य जाने भगवन् 
    जब से......... 
    यूँ तो........ 
                                 भाग २
    जब से रहस्य जाना यज्ञ का हमने
    जीवन बना यज्ञमय पावन
    यूं तो अनजाने में हर अंग है  याज्ञिक(२) 
    कर रहे हैं मिलजुल कर संगतिकरण
    मन- देह इन्द्रियां है अग्नि-अर्पण 
    जब से........... 
    प्रभु ने ही यज्ञ रचाया यजमान बन के
    विश्व- याग देवता हम हैं इस यज्ञ के 
    प्रभु चाहते हैं देवता आहुति देवें यज्ञ में 
    इसलिए विश्व यज्ञ रचा सर्वज्ञ ने 
    यज्ञ में किया दान, मूल्य रखता महान(२) 
    भला करता है प्रभु- भक्त का भजन (२) 
    जब से .......... 
    सफल होगा आहुति से प्रभु का अखंड यज्ञ 
    एक-एक भावना में होगा व्यवहार सत्य 
    वाचिक मानसिक कायिक आहुतियां यज्ञमय
    बना देंगे अग्नि देव कल्याणकारी नित्य 
    व्यष्टि समष्टि में हवियों की जागे चमक (२) 
    जातवेदस् अग्नि बने मित्र मनभावन (२) 
    जब से......... 
    आओ बने ज्वाला जातवेदस्  अग्नि की 
    गाते जायें स्तुतियां इस देव अग्रणी की 
    वाणी आचरण, विचार से बने यह उज्जवल 
    निकट होती जाए अधिक ये यज्ञाग्नि 
    कर देवें पूर्णाहुत हविरूप जीवन(२) 
    कहते हुए अग्नये इदन्नमम(२)।। 
    जब से.......... 
    यूं तो......... 
                              १८.१२.२००८
      ‌‌‌              ‌‌‌‌           ७.५५ रात्रि
    पावन = पवित्र,शुद्ध
    संगतिकरण=परस्पर मेल करना
    रुधिर= खून रक्त 
    अनवद्य निर्दोष 
    इदन्नमम= यह मेरा नहीं 
    सर्वज्ञ= सब कुछ जानने वाला 
    वाचिक =वाणी संबंधी 
    मानसिक =मन संबंधी
     कायिक =शरीर संबंधी 
    व्यष्टि =समाज में से प्रत्येक 
    समष्टि =समस्त, सबका समूह 
    जातवेदस् =जीवन की अग्नि 
    अग्रणी= आगे ले जाने वाला 
    हवि= आहुति

    🕉द्वितीय श्रृंखला का ९५  वां वैदिक भजन और अबतक 
    का ११०२ वां वैदिक भजन

    🕉वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं! 🙏🌹

    Vyakhya -

     भगवान् का भला
    जब से हमने यज्ञ का रहस्य समझा है,हमारा सम्पूर्ण जीवन यज्ञमय हो गया है। यूं तो हमारा प्रत्येक अंग अनजाने में भी यज्ञ ही कर रहा है। हमारे शरीर की प्रत्येक यांत्रिक क्रिया अपने आप में एक यज्ञ है। हमारा श्वास लेना,आंख झपकाना, हमारे रुधिर का नाड़ी- नाड़ी में प्रवाहित होना, यह सब छोटे-छोटे यज्ञ है। कितने अंग- प्रत्यंग मिलकर इन क्रियाओं में भाग लेते हैं ! प्रत्येक जीव जन्तु का शरीर, यज्ञ द्वारा अभिलक्षित संगतिकरण का मूर्त्त  उदाहरण है। 
    हमारे शरीर के मां के इंद्रियों के सभी यज्ञ-याग अग्नि के अर्पण है-- इदमग्ने इदन्न मम। यह छोटे-छोटे यज्ञ एक महान यज्ञ की आहुतियां ही है। सबसे बड़ा याग विश्व- याग है। यदि हमारे अंगों प्रत्यङ्गो द्वारा संपादित हो रहे सभी यज्ञ विश्व यज्ञ की आग के अंग बन जाएं तो हमारा जीवन सफल है । हमारे जीवन की छोटी- बड़ी सभी क्रियाएं सफल हैं। 
    क्या हमारी इन छोटी-छोटी अग्नियोंके, इस महान अग्नि की वेदी पर आहुति बन प्रस्तुत होने का कुछ लाभ भी है? 
    क्या हमारी इन छोटी-छोटी अंजन के इस महान अग्नि की वेदी पर आहुति बन प्रस्तुत होने का कुछ लाभ भी है? संसार चल रहा है मनुष्य उसका कितना अल्प भाग है ! इतनी विस्तृत विश्व में मनुष्य की गिनती ही क्या है ! जहां अनगिनत ग्रह उपग्रह असंख्य सूर्य असंख्य तारे असंख्य जीव जंतु अपनी अपनी मर्यादा में बिना अनु मात्रा विचलित हुए अपनी-अपनी कक्षा में घूम में जा रहे हैं वहां मनुष्य जैसे अत्यंत अल्प प्राणी की हैसियत ही क्या है ? इसने ज किया ना किया। विश्व-याग की आग में इसकी इस नन्ही सी आहुति को पूछता कौन है? 
    नहीं हम इतने कुछ नहीं हैं । हमारी बात-बात अग्नि देव को प्रोत्साहित करती है।  उसे आगे बढ़ती है भगवान को भक्त की अत्यंत आवश्यकता है। वक्त ना हो तो भगवान भगवान नहीं रहता ।प्रभु ने यज्ञ कराया है । वह तो इस यज्ञ का यजमान ही है। विश्व -या के देवता हम हैं। यज्ञ रचाया ही इसलिए गया है कि हम उसमें अपनी आहुतियां दें। हम इस यज्ञ के विषय में क्या कहते हैं क्या करते हैं क्या सुनते हैं-- हमारी इस बात बात का यज्ञ के लिए महान मूल्य है। भक्ति की भक्ति से भगवान का भला होता है। 
    प्रभु का यज्ञ हमारी आहुतियां द्वारा ही सफल होगा। जब यह बात है तो हमें अपनी एक-एक भावना को एक-एक चेष्टा को एक-एक वाक्य को कैसी सावधानी से व्यवहार में लाना चाहिए ! यदि हमारी मनोवृति ही यज्ञ की हो जाए तो शेष सावधानी तो अपने आप हो ही जाएगी। अग्नि देव हमारे मानसिक, वाचिक, कायिक आहुतियों को अपने आप संभाल लेगा। उन्हें सुसंस्कृत कर अपने -आप उज्जवल' विमल, ज्योतिर्मय बना लेगा।
    हमारे हृदय में एक बार इस अमर जीवनाग्नि की प्रशंसा जाग जाए सही। हमें अपना जीवन यज्ञ में प्रतीत होने लगे सही। उसकी दिव्यता पर--एक एक अंग की प्रक्रियाओं की अलौकिकता पर-- हमारी आश्चर्य चकित दृष्टि मुग्ध हो एक बार टिक जाए सही, फिर हमारे मुख से हमारे अपने शरीर की अड़ोस-पड़ोस के प्राणी- जगत के शरीरों की समाज और समुदायों के सामष्टिक शरीरों की संपूर्ण विश्व के व्यापक शरीर की प्रशंसा निकालनी बंद न होगी । 
    चाहे प्रतिक्षण व्यक्ति मर रहे हैं पर समष्टि अमर है। एक बार प्रलय में विलीन हुआ अग्नि देव फिर जग जाता है। 'जातवेदा' अग्नि का तांतां कभी वविच्छिन्न नहीं होता , कभी मृत्यु का ग्रास नहीं बनता। 
    जातवेदस् अग्नि हमारा सबसे बड़ा मित्र है ।  हमारे जीवन का आधार उत्पन्न जगत का आधारभूत यह विश्व व्यापक अग्नि ही है। हमारा इससे अधिक हित क्या हो सकता है कि हम इस अग्नि की ज्वाला बन जाएं ,इसे चमकाएं और अपने- आप चमकें--वाणी से; विचार से,आचरण से इस अग्नि के गुण गाते जायैं। इसकी प्रशंसा करते जाएं। प्रत्येक क्षण हमारे इस प्रशंसा के भाव को उन्नत करता जाए। हम इस आज के अधिक- अधिक निकट होते जाएं-- यहां तक कि हमारा संपूर्ण जीवन, जीवन -अग्नि की-- विश्व यागकी आग की-- मुहूर्त मित्रता प्रगल्भ प्रशंसा हो जाए। 

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