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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 117 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 117/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भिक्षुः देवता - धनान्नदानप्रशंसा छन्दः - पादनिचृज्ज्गती स्वरः - निषादः

    य आ॒ध्राय॑ चकमा॒नाय॑ पि॒त्वोऽन्न॑वा॒न्त्सन्र॑फि॒तायो॑पज॒ग्मुषे॑ । स्थि॒रं मन॑: कृणु॒ते सेव॑ते पु॒रोतो चि॒त्स म॑र्डि॒तारं॒ न वि॑न्दते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । आ॒ध्राय॑ । च॒क॒मा॒नाय॑ । पि॒त्वः । अन्न॑ऽवान् । सन् । र॒फि॒ताय॑ । उ॒प॒ऽज॒ग्मुषे॑ । स्थि॒रम् । मनः॑ । कृ॒णु॒ते । सेव॑ते । पु॒रा । उ॒तो इति॑ । चि॒त् । सः । म॒र्डि॒तार॑म् । न । वि॒न्द॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य आध्राय चकमानाय पित्वोऽन्नवान्त्सन्रफितायोपजग्मुषे । स्थिरं मन: कृणुते सेवते पुरोतो चित्स मर्डितारं न विन्दते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । आध्राय । चकमानाय । पित्वः । अन्नऽवान् । सन् । रफिताय । उपऽजग्मुषे । स्थिरम् । मनः । कृणुते । सेवते । पुरा । उतो इति । चित् । सः । मर्डितारम् । न । विन्दते ॥ १०.११७.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 117; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 2

    मन्त्रार्थ -
    (यः-अन्नवान् सन्) जो अन्न वाला होता हुआ (आध्राय) क्षीणवृत्ति जन-दरिद्र अङ्गभङ्ग के लिए (रेफिताय) हिंसित-व्यथित, अन्य प्राणी के द्वारा या रोग के द्वारा पीडित (उपजग्मुषे) शरणागत निर्बल कृश के लिए (पित्व: चकमानीय) अन्न की कामना करते हुए विद्वान् भिनु के लिए (मनः स्थिरं कृणुते) मन को ढीट बनाता है-मन को हिलाता नहीं (उत–उ) अपितु (पुरा चित् सेवते) स्वयं प्रथम ही अन्न का सेवन करता है-खा लेता है (सः-मर्डितारं न विन्दते) वह सुखदाता परमात्मा को प्राप्त नहीं करता ॥२॥

    विशेष - ऋषिः- भिक्षुः परमात्म सत्सङ्ग का भिक्षु गौणरूप में अन्न का भी भिक्षु परमात्मसत्सङ्गार्थ ही भिक्षु [(अन्न का भिक्षु)] देवता- धनान्नदान प्रशंसा, इन्द्रश्च (धनान्नदान की प्रशंसा और भिक्षाचर्या में अभीष्ट परमात्मा)

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