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  • यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वरुण ऋषिः देवता - आपो देवताः छन्दः - निचृत् आर्षी त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
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    अ॒पो दे॒वा मधु॑मतीरगृभ्ण॒न्नर्ज॑स्वती राज॒स्वश्चिता॑नाः। याभि॑र्मि॒त्रावरु॑णाव॒भ्यषि॑ञ्च॒न् याभि॒रिन्द्र॒मन॑य॒न्नत्यरा॑तीः॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पः। दे॒वाः। मधु॑मती॒रिति॒ मधु॑ऽमतीः। अ॒गृ॒भ्ण॒न्। ऊर्ज॑स्वतीः। राज॒स्व᳕ इति॑ राज॒ऽस्वः᳖। चिता॑नाः। याभिः॑। मि॒त्रावरु॑णौ। अ॒भि। असि॑ञ्चन्। याभिः॑। इन्द्र॑म्। अन॑यन्। अति॑। अरा॑तीः ॥१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपो देवा मधुमतीरगृभ्णन्नूर्जस्वती राजस्वश्चितानाः । भिर्मित्रावरुणावभ्यषिञ्चन्याभिरिन्द्रमनयन्नत्यरातीः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अपः। देवाः। मधुमतीरिति मधुऽमतीः। अगृभ्णन्। ऊर्जस्वतीः। राजस्व इति राजऽस्वः। चितानाः। याभिः। मित्रावरुणौ। अभि। असिञ्चन्। याभिः। इन्द्रम्। अनयन्। अति। अरातीः॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 10; मन्त्र » 1
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! तुम लोग (देवाः) चतुर विद्वान् लोग (याभिः) जिन क्रियाओं से (मित्रावरुणौ) प्राण तथा उदान को (अभ्यसिञ्चन्) सब प्रकार सींचते और जिन क्रियाओं से (इन्द्रम्) बिजुली को प्राप्त और (अरातीः) शत्रुओं को (अनयन्) जीतते हैं, उन क्रियाओं से (मधुमतीः) प्रशंसनीय मधुरादि गुणयुक्त (ऊर्जस्वतीः) बल पराक्रम बढ़ाने (चितानाः) चेतनता देने और (राजस्वः) ज्ञान-प्रकाश-युक्त राज्य को प्राप्त करानेहारे (अपः) जल वा प्राणों को (अगृभ्णन्) ग्रहण करो॥१॥

    भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि विद्वानों के सहाय से जल वा प्राणों की परीक्षा करके उनसे उपयोग लेवें। शत्रुओं को निवृत्त करके प्रजा के साथ प्राणों के समान प्रीति से वर्त्तें और इन जल तथा प्राणों से उपकार लेवें॥१॥

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