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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 24
    ऋषिः - देवा ऋषयः देवता - विषमाङ्कगणितविद्याविदात्मा देवता छन्दः - संकृतिः, विराट् संकृतिः स्वरः - गान्धारः
    6

    एका॑ च मे ति॒स्रश्च॑ मे ति॒स्रश्च॑ मे॒ पञ्च॑ च मे॒ पञ्च॑ च मे स॒प्त च॑ मे स॒प्त च॑ मे॒ नव॑ च मे॒ नव॑ च म॒ऽएका॑दश च म॒ऽएका॑दश च मे॒ त्रयो॑दश च मे॒ त्रयो॑दश च मे॒ पञ्च॑दश च मे॒ पञ्च॑दश॒ च मे स॒प्तद॑श च मे स॒प्तद॑श च मे॒ नव॑दश च मे॒ नव॑दश च मऽएक॑विꣳशतिश्च म॒ऽएक॑विꣳशतिश्च मे॒ त्रयो॑विꣳशतिश्च मे त्रयो॑विꣳशतिश्च मे॒ पञ्च॑विꣳशतिश्च मे॒ पञ्च॑विꣳशतिश्च मे स॒प्तवि॑ꣳशतिश्च मे स॒प्तवि॑ꣳशतिश्च मे॒ नव॑विꣳशतिश्च मे॒ नव॑विꣳशतिश्च म॒ऽएक॑त्रिꣳशच्च म॒ऽएक॑त्रिꣳशच्च मे॒ त्रय॑स्त्रिꣳशच्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एका॑। च॒। मे॒। ति॒स्रः। च॒। मे॒। ति॒स्रः। च॒। मे॒। पञ्च॑। च॒। मे॒। पञ्च॑। च॒। मे॒। स॒प्त। च॒। मे॒। स॒प्त। च॒। मे। नव॑। च॒। मे॒। नव॑। च॒। मे॒। एका॑दश। च॒। मे॒। एका॑दश। च॒। मे॒। त्रयो॑द॒शेति॒ त्रयः॑ऽदश। च॒। मे॒। त्रयो॑द॒शेति॒ त्रयः॑ऽदशः। च॒। मे॒। पञ्च॑द॒शेति॒ पञ्च॑ऽदश। च॒। मे॒। पञ्च॑द॒शेति॒ पञ्च॑दश। च॒। मे॒। स॒प्तद॒शेति॒ स॒प्तऽद॑श। च॒। मे॒। स॒प्तद॒शेति॒ स॒प्तऽद॑श। च॒। मे॒ नव॑द॒शेति॒ नव॑ऽदश। च॒। मे॒। नव॑द॒शेति॒ नव॑ऽदश। च॒। मे॒। एक॑विꣳशति॒रित्येक॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। एक॑विꣳशति॒रित्येक॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। त्रयो॑विꣳशति॒रिति॒ त्रयः॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। त्रयो॑विꣳशति॒रिति॒ त्रयः॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। पञ्च॑विꣳशति॒रिति॒ पञ्च॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। पञ्च॑विऽꣳशतिरिति॒ पञ्च॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। स॒प्तवि॑ꣳशति॒रिति॑ स॒प्तऽवि॑ꣳशतिः। च॒। मे॒। स॒प्तवि॑ꣳशति॒रिति॑ स॒प्तऽवि॑ꣳशतिः। च॒। मे॒। नव॑विꣳशति॒रिति॒ नव॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। नव॑विꣳशति॒रिति॒ नव॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। एक॑त्रिꣳश॒दित्येक॑ऽत्रिꣳशत्। च॒। मे॒। एक॑त्रिꣳश॒दित्येक॑ऽत्रिꣳशत्। च॒। मे॒। त्रय॑स्त्रिꣳश॒दिति॒ त्रयः॑ऽत्रिꣳशत्। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥२४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एका च मे तिस्रश्च मे तिस्रश्च मे पञ्च च मे पञ्च च मे सप्त च मे सप्त च मे नव च मे नव च म एकादश च म एकादश च मे त्रयोदश च मे त्रयोदश च मे पञ्चदश च मे पञ्चदश च मे सप्तदश च मे सप्तदश च मे नवदश च मे नवदश च म एकविँशतिश्च म एकविँशतिश्च मे त्रयोविँशतिश्च मे त्रयोविँशतिश्च मे पञ्चविँशतिश्च मे पञ्चविँशतिश्च मे सप्तविँशश्च मे सप्तविँशतिश्च मे नवविँशतिश्च मे नवविँशतिश्च म एकत्रिँशच्च म एकत्रिँशच्च मे त्रयस्त्रिँशच्च मे त्रयस्त्रिँशच्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    एका। च। मे। तिस्रः। च। मे। तिस्रः। च। मे। पञ्च। च। मे। पञ्च। च। मे। सप्त। च। मे। सप्त। च। मे। नव। च। मे। नव। च। मे। एकादश। च। मे। एकादश। च। मे। त्रयोदशेति त्रयःऽदश। च। मे। त्रयोदशेति त्रयःऽदशः। च। मे। पञ्चदशेति पञ्चऽदश। च। मे। पञ्चदशेति पञ्चदश। च। मे। सप्तदशेति सप्तऽदश। च। मे। सप्तदशेति सप्तऽदश। च। मे नवदशेति नवऽदश। च। मे। नवदशेति नवऽदश। च। मे। एकविꣳशतिरित्येकऽविꣳशतिः। च। मे। एकविꣳशतिरित्येकऽविꣳशतिः। च। मे। त्रयोविꣳशतिरिति त्रयःऽविꣳशतिः। च। मे। त्रयोविꣳशतिरिति त्रयःऽविꣳशतिः। च। मे। पञ्चविꣳशतिरिति पञ्चऽविꣳशतिः। च। मे। पञ्चविऽꣳशतिरिति पञ्चऽविꣳशतिः। च। मे। सप्तविꣳशतिरिति सप्तऽविꣳशतिः। च। मे। सप्तविꣳशतिरिति सप्तऽविꣳशतिः। च। मे। नवविꣳशतिरिति नवऽविꣳशतिः। च। मे। नवविꣳशतिरिति नवऽविꣳशतिः। च। मे। एकत्रिꣳशदित्येकऽत्रिꣳशत्। च। मे। एकत्रिꣳशदित्येकऽत्रिꣳशत्। च। मे। त्रयस्त्रिꣳशदिति त्रयःऽत्रिꣳशत्। च। मे। यज्ञेन। कल्पन्ताम्॥२४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 24
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    पदार्थ -
    (यज्ञेन) मेल करने अर्थात् योग करने से (मे) मेरी (एका) एक संख्या (च) और दो (मे) मेरी (तिस्रः) तीन संख्या (च) फिर (मे) मेरी (तिस्रः) तीन (च) और दो (मे) मेरी (पञ्च) पांच (च) फिर (मे) मेरी (पञ्च) पांच (च) और दो (मे) मेरी (सप्त) सात (च) फिर (मे) मेरी (सप्त) सात (च) और दो (मे) मेरी (नव) नौ (च) फिर (मे) मेरी (नव) नौ (च) और दो (मे) मेरी (एकादश) ग्यारह (च) फिर (मे) मेरी (मे) मेरी (एकादश) ग्यारह (च) और दो (मे) मेरी (त्रयोदश) तेरह (च) फिर (मे) मेरी (त्रयोदश) तेरह (च) और दो (मे) मेरी (पञ्चदश) पन्द्रह (च) फिर (मे) मेरी (पञ्चदश) पन्द्रह (च) और दो (मे) मेरी (सप्तदश) सत्रह (च) फिर (मे) मेरी (सप्तदश) सत्रह (च) और दो (मे) मेरी (नवदश) उन्नीस (च) फिर (नवदश) उन्नीस (च) और दो (मे) मेरी (एकविंशतिः) इक्कीस (च) फिर (मे) मेरी (एकविंशतिः) इक्कीस (च) और दो (मे) मेरी (त्रयोविंशतिः) तेईस (च) फिर (मे) मेरी (त्रयोविंशतिः) तेईस (च) और दो (मे) मेरी (पञ्चविंशतिः) पच्चीस (च) फिर (मे) मेरी (पञ्चविंशतिः) पच्चीस (च) और दो (मे) मेरी (सप्तविंशतिः) सत्ताईस (च) फिर (मे) मेरी (सप्तविंशतिः) सत्ताईस (च) और दो (मे) मेरी (नवविंशतिः) उनतीस (च) फिर (मे) मेरी (नवविंशतिः) उनतीस (च) और दो (मे) मेरी (एकत्रिंशत्) इकतीस (च) फिर (मे) मेरी (एकत्रिंशत्) इकतीस (च) और दो (मे) मेरी (त्रयस्त्रिंशत्) तेंतीस (च) और आगे भी इसी प्रकार संख्या (कल्पन्ताम्) समर्थ हों। यह एक योगपक्ष है॥१॥२४॥ अब दूसरा पक्ष-(यज्ञेन) योग से विपरीत दानरूप वियोगमार्ग से विपरीत संगृहीत (च) और संख्या दो के वियोग अर्थात् अन्तर से [जैसे] (मे) मेरी (कल्पन्ताम्) समर्थ हों, वैसे (मे) मेरी (त्रयस्त्रिंशत्) तेंतीस संख्या (च) दो के देने अर्थात् वियोग से (मे) मेरी (एकत्रिंशत्) इकतीस (च) फिर (मे) मेरी (एकत्रिंशत्) इकतीस (च) दो के वियोग से (मे) मेरी (नवविंशतिः) उनतीस (च) फिर (मे) फि (मे) मेरी (नवविंशतिः) उनतीस (च) दो के वियोग से (मे) मेरी (सप्तविंशतिः) सत्ताईस समर्थ हों, ऐसे सब संख्याओं में जानना चाहिये॥ यह वियोग से दूसरा पक्ष है॥२॥२४॥ अब तीसरा (मे) मेरी (एका) एक संख्या (च) और (मे) मेरी (तिस्रः) तीन संख्या (च) परस्पर गुणी, (मे) मेरी (तिस्रः) तीन संख्या (च) और (मे) मेरी (पञ्च) पांच संख्या (च) परस्पर गुणित, (मे) मेरी (पञ्च) पांच संख्या (च) और (मे) मेरी (सप्त) सात संख्या (च) परस्पर गुणित, (मे) मेरी (सप्त) सात संख्या (च) और (मे) मेरी (नव) नव संख्या (च) परस्पर गुणित, (मे) मेरी (नव) नव संख्या (च) और (मे) मेरी (एकादश) ग्यारह संख्या (च) परस्पर गुणित, इस प्रकार अन्य संख्या (यज्ञेन) उक्त बार-बार योग अर्थात् गुणन से (कल्पन्ताम्) समर्थ हों। यह गुणन विषय से तीसरा पक्ष है॥३॥२४॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में (यज्ञेन) इस पद से जोड़ना-घटाना लिये जाते हैं, क्योंकि जो यज धातु का सङ्गतिकरण अर्थ है, उससे सङ्ग कर देना अर्थात् किसी संख्या को किसी संख्या से योग कर देना वा यज धातु का जो दान अर्थ है, उससे ऐसी सम्भावना करनी चाहिये कि किसी संख्या का दान अर्थात् व्यय करना निकाल-डालना यही अन्तर है। इस प्रकार गुणन, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, भागजाति, प्रभागजाति आदि जो गणित के भेद हैं, वे योग और अन्तर से ही उत्पन्न होते हैं, क्योंकि किसी संख्या को किसी संख्या से एक बार मिला दे तो योग कहाता है, जैसे २+४=६ अर्थात् २ में ४ जोड़ें तो ६ होते हैं। ऐसे यदि अनेक वार संख्या में संख्या जोड़ें तो उसको गुणन कहते हैं, जैसे अर्थात् र्२ें४ृ२ को ४ वार अलग अलग जोड़ें वा २ को ४ चार से गुणे तो ८ होते हैं। ऐसे ही ४ को ४ चौगुना कर दिया तो ४ का वर्ग १६ हुए, ऐसे ही अन्तर से भाग, वर्गमूल, घनमूल आदि निष्पन्न होते हैं अर्थात् किसी संख्या को जोड़ देवे वा किसी प्रकारान्तर से घटा देवे, इसी योग वा वियोग से बुद्धिमानों की यथामति कल्पना से व्यक्त, अव्यक्त, अङ्कगणित और बीजगणित आदि समस्त गणितक्रिया उत्पन्न होती हैं। इस कारण इस मन्त्र में दो के योग से उत्तरोत्तर संख्या वा दो के वियोग से पूर्व पूर्व संख्या अच्छे प्रकार दिखलाई हैं, वैसे गुणन का भी कुछ प्रकार दिखलाया है, यह जानना चाहिये॥२४॥

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