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  • यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 33
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - निचृत् गायत्री, स्वरः - षड्जः
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    आध॑त्त पितरो॒ गर्भं॑ कुमा॒रं पुष्क॑रस्रजम्। यथे॒ह पुरु॒षोऽस॑त्॥३३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। ध॒त्त॒। पि॒त॒रः॒। गर्भ॑म्। कु॒मा॒रम्। पुष्क॑रस्रज॒मिति॒ पुष्क॑रऽस्रजम्। यथा॑। इ॒ह। पुरु॑षः। अस॑त् ॥३३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आधत्त पितरो गर्भङ्कुमारम्पुष्करस्रजम् । यथेह पुरुषो सत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। धत्त। पितरः। गर्भम्। कुमारम्। पुष्करस्रजमिति पुष्करऽस्रजम्। यथा। इह। पुरुषः। असत्॥३३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 2; मन्त्र » 33
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    पदार्थ -
    हे (पितरः) विद्यादान से रक्षा करने वाले विद्वान् पुरुषो! आप (यथा) जैसे यह ब्रह्मचारी (इह) इस संसार वा हमारे कुल में अपने शरीर और आत्मा के बल को प्राप्त होके विद्या और पुरुषार्थयुक्त मनुष्य (असत्) हो वैसे (गर्भम्) गर्भ के समान (पुष्करस्रजम्) विद्या ग्रहण के लिये फूलों की माला धारण किये हुए (कुमारम्) ब्रह्मचारी को (आधत्त) अच्छी प्रकार स्वीकार कीजिये॥३३॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। ईश्वर आज्ञा देता है कि विद्वान् पुरुष और स्त्रियों को चाहिये कि विद्यार्थी, कुमार वा कुमारी को विद्या देने के लिये गर्भ के समान धारण करें। जैसे क्रम-क्रम से गर्भ के बीच देह बीच बढ़ता है, वैसे अध्यापक लोगों को चाहिये कि अच्छी-अच्छी शिक्षा से ब्रह्मचारी, कुमार वा कुमारी को श्रेष्ठ विद्या में वृद्धियुक्त करें तथा (उनका) पालन करें। वे विद्या के योग से धर्मात्मा और पुरुषार्थयुक्त होकर सदा सुखी हों, यह अनुष्ठान सदैव करना चाहिये॥३३॥

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