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  • यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 13
    ऋषिः - अश्विनावृषी देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - भुरिक् शक्वरी स्वरः - धैवतः
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    दे॒वीर्द्वार॒ऽ इन्द्र॑ꣳसङ्घा॒ते वी॒ड्वीर्याम॑न्नवर्द्धयन्। आ व॒त्सेन॒ तरु॑णेन कुमा॒रेण॑ च मीव॒तापार्वा॑णꣳ रे॒णुक॑काटं नुदन्तां वसु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वीः। द्वारः॑। इन्द्र॑म्। स॒ङ्घा॒त इति॑ सम्ऽघा॒ते। वी॒ड्वीः। याम॑न्। अ॒व॒र्द्ध॒य॒न्। आ। व॒त्सेन॑। तरु॑णेन। कु॒मा॒रेण॑। च॒। मी॒व॒ता। अप॑। अर्वा॑णम्। रे॒णुक॑काट॒मिति॑ रे॒णुऽक॑काटम्। नु॒द॒न्ता॒म्। वसु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। व्य॒न्तु॒। यज॑ ॥१३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवीर्द्वारऽइन्द्रँ सङ्घाते वीड्वीर्यामन्नवर्धयन् । आ वत्सेन तरुणेन कुमारेण च मीवतापार्वाणँ रेणुककाटन्नुदन्ताँवसुवने वसुधेयस्य व्यन्तु यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवीः। द्वारः। इन्द्रम्। सङ्घात इति सम्ऽघाते। वीड्वीः। यामन्। अवर्द्धयन्। आ। वत्सेन। तरुणेन। कुमारेण। च। मीवता। अप। अर्वाणम्। रेणुककाटमिति रेणुऽककाटम्। नुदन्ताम्। वसुवन इति वसुऽवने। वसुधेयस्येति वसुऽधेयस्य। व्यन्तु। यज॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 28; मन्त्र » 13
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    पदार्थ -
    हे विद्वन्! जैसे (वीड्वीः) विशेषकर स्तुति के योग्य (देवीः) प्रकाशमान (द्वारः) द्वार (रेणुककाटम्) धूलि से युक्त कूप अर्थात् अन्धकुआ को (यामन्) मार्ग में छोड़ के (तरुणेन) ज्वान (मीवता) शूर दुष्ट हिंसा करते हुए (च) और (कुमारेण) ब्रह्मचारी (वत्सेन) बछरे के तुल्य जन के साथ वर्त्तमान (अर्वाणम्) चलते हुए घोड़े यथा (इन्द्रम्) ऐश्वर्य को (आ, अवर्धयन्) बढ़ाते हैं, (वसुवने) धन के सेवने योग्य (सङ्घाते) सम्बन्ध में (वसुधेयस्य) धनधारक संसार के विघ्न को (अप, नुदन्ताम्) प्रेरित करो और (व्यन्तु) प्राप्त होओ, वैसे (यज) प्राप्त हूजिये॥१३॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! जैसे बटोही जन मार्ग में वर्त्तमान कूप को छोड़, शुद्ध मार्ग कर प्राणियों को सुख से पहुंचाते हैं, वैसे बाल्यावस्था में विवाहादि विघ्नों को हटा विद्या प्राप्त करा के अपने सन्तानों को सुख के मार्ग में चलावें।१३॥

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