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  • यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 19
    ऋषिः - वत्स ऋषिः देवता - वाग्विद्युतौ देवते छन्दः - निचृत् ब्राह्मी पङ्क्ति, स्वरः - पञ्चमः
    6

    चिद॑सि म॒नासि॒ धीर॑सि॒ दक्षि॑णासि क्ष॒त्रिया॑सि य॒ज्ञिया॒स्यदि॑तिरस्युभयतःशी॒र्ष्णी। सा नः॒ सुप्रा॑ची॒ सुप्र॑तीच्येधि मि॒त्रस्त्वा॑ प॒दि ब॑ध्नीतां पू॒षाऽध्व॑नस्पा॒त्विन्द्रा॒याध्य॑क्षाय॥१९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    चित्। अ॒सि॒। म॒ना। अ॒सि॒। धीः। अ॒सि॒। दक्षि॑णा। अ॒सि॒। क्ष॒त्रिया॑। अ॒सि॒। य॒ज्ञिया॑। अ॒सि॒। अदि॑तिः। अ॒सि॒। उ॒भ॒य॒तः॒शी॒र्ष्णीत्यु॑भयतःऽशी॒र्ष्णी। सा। नः॒ सुप्रा॒चीति॒ सुऽप्रा॑ची। सुप्र॑ती॒चीति॒ सुऽप्र॑तीची। ए॒धि॒। मि॒त्रः॒। त्वा॒। प॒दि। ब॒ध्नी॒ता॒म्। पू॒षा। अध्व॑नः। पा॒तु॒। इन्द्रा॑य। अध्य॑क्षा॒येत्यधि॑ऽअक्षाय ॥१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चिदसि मनासि धीरसि दक्षिणासि क्षत्रियासि यज्ञियास्यदितिरस्युभयतःशीर्ष्णी । सा नः सुप्राची सुप्रतीच्येधि मित्रस्त्वा पदि बध्नीताम्पूषाध्वनस्पात्विन्द्रायाधक्षाय ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    चित्। असि। मना। असि। धीः। असि। दक्षिणा। असि। क्षत्रिया। असि। यज्ञिया। असि। अदितिः। असि। उभयतःशीर्ष्णीत्युभयतःऽशीर्ष्णी। सा। नः सुप्राचीति सुऽप्राची। सुप्रतीचीति सुऽप्रतीची। एधि। मित्रः। त्वा। पदि। बध्नीताम्। पूषा। अध्वनः। पातु। इन्द्राय। अध्यक्षायेत्यधिऽअक्षाय॥१९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 4; मन्त्र » 19
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    पदार्थ -
    हे जगदीश्वर! (सत्यसवसः) सत्य ऐश्वर्य्ययुक्त (ते) आपके (प्रसवे) उत्पन्न किये संसार में जो (चित्) विद्या व्यवहार को चिताने वाली (असि) है, जो (मना) ज्ञान साधन करानेहारी (असि) है, जो (धीः) प्रज्ञा और कर्म को प्राप्त करने वाली (असि) है, जो (दक्षिणा) विज्ञान विजय को प्राप्त करने (क्षत्रिया) राजा के पुत्र के समान वर्ताने हारी (असि) है, जो (यज्ञिया) यज्ञ को कराने योग्य (असि) है, जो (उभयतःशीर्ष्णी) दोनों प्रकार से शिर के समान उत्तम गुणयुक्त और (अदितिः) नाशरहित वाणी वा बिजुली (असि) है, (सा) वह (नः) हम लोगों के लिये (सुप्राची) पूर्वकाल और (सुप्रतीची) पश्चिम काल में सुख देने हारी (एधि) हो, जो (पूषा) पुष्टि करने हारा (मित्रः) सब का मित्र होकर मनुष्यपन के लिये (त्वा) उस वाणी और बिजुली को (पदि) प्राप्ति योग्य उत्तम व्यवहार में (अध्यक्षाय) अच्छे प्रकार व्यवहार को देखने (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य वाले परमात्मा, अध्यक्ष और श्रेष्ठ व्यवहार के लिये (बध्नीताम्) बन्धनयुक्त करे, सो आप (अध्वनः) व्यवहार और परमार्थ की सिद्धि करने वाले मार्ग के मध्य में (नः) हम लोगों की निरन्तर (पातु) रक्षा कीजिये॥१९॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है और पूर्व मन्त्र से (ते, सत्यसवसः, प्रसवे) इन तीन पदों की अनुवृत्ति भी आती है। मनुष्यों को जो बाह्य, आभ्यन्तर की रक्षा करके सब से उत्तम वाणी वा बिजुली वर्त्तती है, वही भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान काल में सुख की कराने वाली है, ऐसा जानना चाहिये। जो कोई मनुष्य प्रीति से परमेश्वर, सभाध्यक्ष और उत्तम कामों में आज्ञा के पालन के लिये सत्य वाणी और उत्तम विद्या को ग्रहण करता है, वही सब की रक्षा कर सकता है॥१९॥

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