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  • यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 7
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - आत्मा देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    यस्मि॒न्त्सर्वा॑णि भू॒तान्या॒त्मैवाभू॑द्विजान॒तः।तत्र॒ को मोहः॒ कः शोक॑ऽएकत्वम॑नु॒पश्य॑तः॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्मि॑न्। सर्वा॑णि। भू॒तानि॑। आ॒त्मा। ए॒व। अभू॑त्। वि॒जा॒न॒त इति॑ विऽजान॒तः ॥ तत्र॑। कः। मोहः॑। कः। शोकः॑। ए॒क॒त्वमित्ये॑क॒ऽत्वम्। अ॒नु॒पश्य॑त॒ऽइत्य॑नु॒पश्य॑तः ॥७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः । तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यस्मिन्। सर्वाणि। भूतानि। आत्मा। एव। अभूत्। विजानत इति विऽजानतः॥ तत्र। कः। मोहः। कः। शोकः। एकत्वमित्येकऽत्वम्। अनुपश्यतऽइत्यनुपश्यतः॥७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 40; मन्त्र » 7
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! (यस्मिन्) जिस परमात्मा, ज्ञान, विज्ञान वा धर्म में (विजानतः) विशेषकर ध्यानदृष्टि से देखते हुए को (सर्वाणि) सब (भूतानि) प्राणीमात्र (आत्मा, एव) अपने तुल्य ही सुख-दुःखवाले (अभूत्) होते हैं, (तत्र) उस परमात्मा आदि में (एकत्वम्) अद्वितीय भाव को (अनुपश्यतः) अनुकूल योगाभ्यास से साक्षात् देखते हुए योगिजन को (कः) कौन (मोहः) मूढावस्था और (कः) कौन (शोकः) शोक वा क्लेश होता है अर्थात् कुछ भी नहीं॥७॥

    भावार्थ - जो विद्वान् संन्यासी लोग परमात्मा के सहचारी प्राणीमात्र को अपने आत्मा के तुल्य जानते हैं अर्थात् जैसे अपना हित चाहते वैसे ही अन्यों में भी वर्त्तते हैं, एक अद्वितीय परमेश्वर के शरण को प्राप्त होते हैं, उनको मोह, शोक और लोभादि कदाचित् प्राप्त नहीं होते। और जो लोग अपने आत्मा को यथावत् जान कर परमात्मा को जानते हैं, वे सदा सुखी होते हैं॥७॥

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