यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 18
ऋषिः - औतथ्यो दीर्घतमा ऋषिः
देवता - विष्णुर्देवता
छन्दः - स्वराट् आर्षी त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
5
विष्णो॒र्नु कं॑ वी॒र्याणि॒ प्रवो॑चं॒ यः पार्थि॑वानि विम॒मे रजा॑सि। योऽअस्क॑भाय॒दुत्त॑रꣳ स॒धस्थं॑ विचक्रमा॒णस्त्रे॒धोरु॑गा॒यो विष्ण॑वे त्वा॥१८॥
स्वर सहित पद पाठविष्णोः॑। नु। क॒म्। वी॒र्या᳖णि। प्र। वो॒च॒म्। यः। पार्थि॑वानि। वि॒म॒मऽइति॑ विऽम॒मे। रजा॑सि। यः। अस्क॑भायत्। उत्त॑रमित्युत्ऽत॑रम्। स॒धस्थ॒मिति॑ स॒धऽस्थ॑म्। वि॒च॒क्र॒मा॒ण इति॑ विऽचक्रमा॒णः। त्रे॒धा। उ॒रु॒गा॒यऽइत्यु॑रुऽगा॒यः। विष्ण॑वे। त्वा ॥१८॥
स्वर रहित मन्त्र
विष्णोर्नु कँवीर्याणि प्र वोचँयः पार्थिवानि विममे रजाँसि । योऽअस्कभायदुत्तरँ सधस्थँविचक्रमाणस्त्रेधोरुगायः विष्णवे त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
विष्णोः। नु। कम्। वीर्याणि। प्र। वोचम्। यः। पार्थिवानि। विममऽइति विऽममे। रजासि। यः। अस्कभायत्। उत्तरमित्युत्ऽतरम्। सधस्थमिति सधऽस्थम्। विचक्रमाण इति विऽचक्रमाणः। त्रेधा। उरुगायऽइत्युरुऽगायः। विष्णवे। त्वा॥१८॥
विषय - अब अगले मन्त्र में व्यापक ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! तुम (यः) जो (विचक्रमाणः) जगत् रचने के लिये कारण के अंशों को युक्त करता हुआ (उरुगायः) बहुत अर्थों को वेद द्वारा उपदेश करने वाला जगदीश्वर (पार्थिवानि) पृथिवी के विकार अर्थात् पृथिवी के गुणों से उत्पन्न होने वाले या अन्तरिक्ष में विदित (त्रेधा) तीन प्रकार के (रजांसि) लोकों को (विममे) अनेक प्रकार से रचता है, जो (उत्तरम्) पिछले अवयवों के (सधस्थम्) साथ रहने वाले कारण को (अस्कभायत्) रोक रखता है (यः) जो (विष्णवे) उपासनादि यज्ञ के लिये आश्रय किया जाता है, उस (विष्णोः) व्यापक परमेश्वर के (वीर्याणि) पराक्रमयुक्त कर्मों का (प्रवोचम्) कथन करूं और हे परमेश्वर! (नु) शीघ्र ही (कम्) सुखस्वरूप (त्वा) आपका आश्रय करता हूं॥१८॥
भावार्थ - सब मनुष्यों को जिस परमेश्वर ने पृथिवी, सूर्य और त्रसरेणु आदि भेद से तीन प्रकार के जगत् को रचकर धारण किया है, उसी की उपासना करनी चाहिये॥१८॥
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