Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 55
    ऋषिः - सिन्धुद्वीप ऋषिः देवता - सिनीवाली देवता छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    1

    सꣳसृ॑ष्टां॒ वसु॑भी रु॒द्रैर्धीरैः॑ कर्म॒ण्यां मृद॑म्। हस्ता॑भ्यां मृ॒द्वीं कृ॒त्वा सि॑नीवा॒ली कृ॑णोतु॒ ताम्॥५५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सꣳसृ॑ष्टा॒मिति॒ सम्ऽसृ॑ष्टाम्। वसु॑भि॒रिति॒ वसु॑ऽभिः। रु॒द्रैः। धीरैः॑। क॒र्म॒ण्या᳕म्। मृद॑म्। हस्ता॑भ्याम्। मृ॒द्वीम्। कृ॒त्वा। सि॒नी॒वा॒ली। कृ॒णो॒तु॒। ताम् ॥५५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सँसृष्टाँवसुभी रुद्रैर्धीरैः कर्मण्याम्मृदम् । हस्ताभ्याम्मृद्वीङ्कृत्वा सिनीवाली कृणोतु ताम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सꣳसृष्टामिति सम्ऽसृष्टाम्। वसुभिरिति वसुऽभिः। रुद्रैः। धीरैः। कर्मण्याम्। मृदम्। हस्ताभ्याम्। मृद्वीम्। कृत्वा। सिनीवाली। कृणोतु। ताम्॥५५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 55
    Acknowledgment

    Meaning -
    O husband, just as a potter with the dexterity of his hand and skill, utilizes the clay, so render soft-hearted the celibate girl, well trained by the vasus, the Rudras, and the self controlled instructors. Take her as thy wife, who through love makes the girls strong.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top