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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 120
ऋषिः - देवजामय इन्द्रमातर ऋषिकाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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त्व꣡मि꣢न्द्र꣣ ब꣢ला꣣द꣢धि꣣ स꣡ह꣢सो जा꣣त꣡ ओज꣢꣯सः । त्वꣳ सन्वृ꣢꣯ष꣣न्वृ꣡षेद꣢꣯सि ॥१२०॥

स्वर सहित पद पाठ

त्व꣢म् । इ꣣न्द्र । ब꣡ला꣢꣯त् । अ꣡धि꣢꣯ । स꣡ह꣢꣯सः । जा꣣तः꣢ । ओ꣡ज꣢꣯सः । त्व꣢म् । सन् । वृ꣣षन् । वृ꣡षा꣢꣯ । इत् । अ꣣सि ॥१२०॥


स्वर रहित मन्त्र

त्वमिन्द्र बलादधि सहसो जात ओजसः । त्वꣳ सन्वृषन्वृषेदसि ॥१२०॥


स्वर रहित पद पाठ

त्वम् । इन्द्र । बलात् । अधि । सहसः । जातः । ओजसः । त्वम् । सन् । वृषन् । वृषा । इत् । असि ॥१२०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 120
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1;
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पदार्थ -
(इन्द्र) हे ऐश्वर्यवाले परमात्मन्! (त्वम्) तू (बलात् सहसः-ओजसः-अधिजातः) बल से—शरीर बल से, सहनेवाले क्षात्र बल से—मनोबल से, ओज-ऋजुबल—आत्मबल से ऊपर प्रसिद्ध हुआ है (त्वं वृषन् सन्) तू इन तीन बलों—शरीरबल मनोबल आत्मबल को अपने उपासकों में बर्षाता हुआ (वृषा-इत्-असि) नितान्त सुखवर्षक है।

भावार्थ - संसार में या मानव में तीन बल होते हैं शरीरबल, मनोबल और आत्मबल, परमात्मन्! तू इन तीनों से ऊपर प्रसिद्ध इनका धारक स्वामी है, अपने उपासक में इनका सञ्चार और प्रसार करता है, अतः समस्त सुखों की वृष्टि करनेवाला है। शरीरबल प्रदान कर स्वास्थ्य दीर्घ जीवन देता है, मनोबल प्रदान कर प्रसाद-हर्ष देता है, आत्मबल प्रदान कर शम्-शान्ति देता है॥६॥

विशेष - ऋषिः—इन्द्रमातरो देवजामय ऋषिकाः (इन्द्र का पालन करने वाली विद्वानों की पत्नियाँ॥<br>

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