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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 121
ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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य꣣ज्ञ꣡ इन्द्र꣢꣯मवर्धय꣣द्य꣢꣫द्भूमिं꣣ व्य꣡व꣢र्तयत् । च꣣क्राण꣡ ओ꣢प꣣शं꣢ दि꣣वि꣢ ॥१२१॥
स्वर सहित पद पाठय꣣ज्ञः꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । अ꣣वर्धयत् । य꣢त् । भू꣡मि꣢म् । व्य꣡व꣢꣯र्तयत् । वि꣣ । अ꣡व꣢꣯र्तयत् । च꣣क्राणः꣢ । ओपश꣢म् । ओ꣣प । श꣢म् । दि꣣वि꣢ ॥१२१॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञ इन्द्रमवर्धयद्यद्भूमिं व्यवर्तयत् । चक्राण ओपशं दिवि ॥१२१॥
स्वर रहित पद पाठ
यज्ञः । इन्द्रम् । अवर्धयत् । यत् । भूमिम् । व्यवर्तयत् । वि । अवर्तयत् । चक्राणः । ओपशम् । ओप । शम् । दिवि ॥१२१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 121
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1;
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पदार्थ -
(यज्ञः-इन्द्रम्-अवर्धयत्) अध्यात्म यज्ञ ने उपासक के अन्दर परमात्मा को बढ़ा दिया—स्पष्ट साक्षात् करा दिया—करा देता है (यत्-भूमिं व्यवर्तयत्) पुनः वह परमात्मा उपासक की भूमि—स्थिति को विवर्तित कर देता है—बदल देता है बद्धावस्था से जीवन्मुक्तावस्था कर देता है (ओपशं-दिवि-चक्राणः) उस परमात्मा के समीप में शयन करनेवाले उपासक आत्मा को दिव्यधाम-अमृतधाम में पहुँचाने के हेतु।
भावार्थ - अध्यात्म यज्ञ से उपासक के अन्दर परमात्मा साक्षात् हो जाता है, पुनः वह साक्षात् हुआ परमात्मा उपासक आत्मा की भूमि को बदल देता है उसे बद्ध से जीवन्मुक्त कर देता है परमात्मा के समीप शयन करनेवाले आत्मा को अमृतधाम—मोक्ष में पहुँचाने के लिए॥७॥
विशेष - ऋषिः—गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ (इन्द्रियों के विषय में अच्छी उक्ति समर्पण करने वाला और प्राण के सम्बन्ध में अच्छी उक्ति प्राणायाम करने वाला जन)॥<br>
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