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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1606
ऋषिः - देवातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
4
स꣣व्या꣡मनु꣢꣯ स्फि꣣꣬ग्यं꣢꣯ वावसे꣣ वृ꣢षा꣣ न꣢ दा꣣नो꣡ अ꣢स्य रोषति । म꣢ध्वा꣣ सं꣡पृ꣢क्ताः सार꣣घे꣡ण꣢ धे꣣न꣢व꣣स्तू꣢य꣣मे꣢हि꣣ द्र꣢वा꣣ पि꣡ब꣢ ॥१६०६॥
स्वर सहित पद पाठस꣣व्या꣡म् । अ꣡नु꣢꣯ । स्फि꣡ग्य꣢꣯म् । वा꣣वसे । वृ꣡षा꣢꣯ । न । दा꣣नः꣢ । अ꣣स्य । रोषति । म꣡ध्वा꣢꣯ । सं꣡पृ꣢꣯क्ताः । सम् । पृ꣣क्ताः । सारघे꣡ण꣢ । धे꣣न꣡वः꣢ । तू꣡य꣢꣯म् । आ । इ꣣हि । द्र꣡व꣢꣯ । पि꣡ब꣢꣯ ॥१६०६॥
स्वर रहित मन्त्र
सव्यामनु स्फिग्यं वावसे वृषा न दानो अस्य रोषति । मध्वा संपृक्ताः सारघेण धेनवस्तूयमेहि द्रवा पिब ॥१६०६॥
स्वर रहित पद पाठ
सव्याम् । अनु । स्फिग्यम् । वावसे । वृषा । न । दानः । अस्य । रोषति । मध्वा । संपृक्ताः । सम् । पृक्ताः । सारघेण । धेनवः । तूयम् । आ । इहि । द्रव । पिब ॥१६०६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1606
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(वृषा) सुखवर्षक परमात्मा (सव्यां स्फिग्यम्-अनु वावसे) वाम जङ्घा के साथ सारे संसार को आच्छादित करता है परमात्मा की विभुता के सम्मुख एकदेशी तुच्छ है पाद मात्र सो भी वाम पाद मात्र है११ (दानः-अस्य न रोषति) इसका खण्डयिता—खण्डन करने वाला१२ नास्तिकजन उसे हिंसित नहीं कर सकता किन्तु अपनी हिंसा है—बार बार जन्म लेकर मृत्यु का ग्रास बनता है (सारघेण मध्वा सम्पृक्ताः-धेनवः) ब्राह्मणों—ब्रह्मवेत्ता उपासकों के१३ आत्मा१४ से सम्पृक्त—सङ्गत हुई स्तुति वाणियाँ१५ समर्पित की जा रही हैं उनके रस को पान करने (तूयम्-एहि) शीघ्र आ (द्रव पिब) हम उपासकों के प्रति द्रवित हों—पास आ और पान कर स्वीकार कर॥२॥
विशेष - <br>
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